Tuesday, July 26, 2011

“बाबू जी- मेरे साथ बलात्कार कर लीजिए”

दुनिया में हम सबसे बड़े लोकतंत्र का झंडा उठाये घूम रहे हैं। हमारी ताकत के आगे चीन और पकिस्तान को छोड़कर हमारे इर्द-गिर्द बसे बाकी तमाम मुल्कों की सल्तनत के छक्के छूटते हैं। हम परमाणु-ताकत रखते हैं। दुनिया की सुपर-पॉवर अमेरिका भी हमारी ताकत का गाहे-बगाहे, काल-पात्र-समय का ध्यान रखकर तारीफ कर ही देती है। हमारे सत्ता शीर्षों को आत्म-संतोष के लिए भला इससे ज्यादा चाहिए भी क्या? अमेरिका ने तारीफ कर दी। हमारी सरकार फूलकर गोल-गप्पा हो गयी। भले ही हमारा पड़ोसी देश चीन और दो कोडी की औकात नहीं जिस मुल्क की वो पकिस्तान , हमारी छाती पर मूंग दलता हो जरा सोचिये। दुनिया के इतने ताकतवर देश में बलात्कार की कीमत तय कर दी जाये। तो इसे क्या कहेंगे। लोकतंत्र के मुंह पर तमाचा, या फिर सरकारी तंत्र में बढ़ती नपुंसकता का इशारा? जो भी समझ लीजिए।
हमारा देश लोकतांत्रिक देश है। यहां किसी के सोचने पर पाबंदी नहीं लगाई जाती। सोचने की आजादी सबको है। चाहे मनमोहन सिंह, सोनिया, कपिल सिब्बल हों। चाहे दिल्ली में आई टी ओ की लालबत्ती पर कटोरा लेकर भीख मांगने वाला, फटे कपड़ों में मई-जून की गर्मी में पसीने से चुचुहाती, सड़क पर काम करती गरीब महिला। अपने हिसाब से सोचने के लिए सब फ्री हैं। क्योंकि हम दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र हैं। खबरों के मुताबिक पिछले दिनों केंद्र सरकार ने दिल्ली हाईकोर्ट में एक जबाब दाखिल किया है। इस जबाब में सरकारी हुक्मरानों ने जो लिखा है, आप भी पढ़ लीजिए :
"देश में बलात्कार पीड़िता को अधिकतम तीन लाख रुपये मुआवजा दिये जाने की स्कीम को अंतिम रुप दे दिया गया है। इसके लिए देश भर में डिस्ट्रिक्ट क्रिमिनल इंज्यूरी रिलीफ एंड रिहेबिलेशन बोर्ड बनेगा। जिला स्तर पर इस बोर्ड के चेयरमैन जिलाधिकारी (डीएम) होंगे। जिले के एसपी यानि पुलिस-अधीक्षक, सिविल-सर्जन, चिकित्सा स्वास्थ्य अधिकारी, इस बोर्ड के सदस्य होंगे। इस जिला स्तर के बोर्ड की निगरानी के लिए राज्य स्तर का भी एक बोर्ड बनेगा। स्कीम के तहत थाने का एसएचओ 72 घंटे के भीतर बलात्कार की घटना की प्राथमिक जांच रिपोर्ट जिला बोर्ड के हवाले करेगा। इस रिपोर्ट के आधार पर जिला स्तरीय बोर्ड, बलात्कार पीड़िता को 20 हजार से 50 हजार रुपये का भुगतान करायेगा। अदालत में बयान दर्ज होने के बाद पीड़िता को 2 लाख रुपये बतौर मुआवजा दिये जायेंगे। अगर बयान दर्ज नहीं हुआ और केस साल भर से लंबित (पेंडिंग)पड़ा है, तो भी बलात्कार पीड़िता को 2 लाख का मुआवजा पाने का ह़क होगा। विशेष परिस्थितियों में ये रकम 3 लाख भी हो सकती है। बलात्कार के बाद अगर पीड़िता को एड्स की बीमारी हो जाये, पीड़िता नाबालिग या मानसिक रुप से कमजोर हो या बलात्कार के बाद वो गर्भवती हो गयी हो, तो भी मुआवजे की राशि 3 लाख रुपये से अधिक नहीं होगी। ये मुआवजा राशि अदालत द्वारा किये जाने वाले जुर्माने से अलग होगी। "
ऊपर लिखी बाते पढ़ने के बाद भी क्या कोई सवाल या किसी सवाल के जबाब की चाहत बची है? मेरे हिसाब से तो नहीं। सब-कुछ साफ है। दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में जिसके साथ बलात्कार होगा, उसे अब न्याय नहीं मुआवजा मिलेगा। क्योंकी हमारे कानून ऐसे है जिसका लाभ पीड़ित को कम अपराधी को ज्यादा मिलता है, कानून एक होता है पर उसकी व्याख्याए उतनी होती है जितने इस देश में वकीलअब तक रेल, हवाई-जहाज, सड़क हादसा, भूकम्प, अग्निकांड में मरने वालों को मुआवजा मिलता था। देखा या भोगा तो कभी नहीं, लेकिन सुना अक्सर है, कि बलात्कार पीड़िता एकदम तो मरती नहीं जब तक जीती है, रोज तिल-तिलकर हर-लम्हा मरती है। लेकिन अब उसे जीते-जी ही “बलात्कार का मुआवजा” मिलेगा । ये कभी नहीं देखा-सुना था। बताईये! कितनी हर्ष की बात है ना! हमें-आपको ये बलात्कार का बाजिब मुआवजा लेने-देने, देखने-सुनने में बुरा लग सकता है। सरकार को भला इस सबसे क्या लेना-देना! बलात्कार सरकार का तो होता नहीं है। बलात्कार तो औरत-लड़की और छोटी बच्चीयो का होता है। जब बलात्कार लड़की-औरत और छोटी बच्चीयो का हो रहा है, तो फिर दर्द सरकार को क्यों हो? सरकार तो “सरकार” है। कोई मेरी-आपकी तरह हाड़-मांस का चलता-फिरता पुतला तो हैं नहीं, जो दर्द होगा। सरकार तो कागज और फाइलों पर चलती है। भला कागज और फाइल के कैसा दर्द? अब सरकार को ही कोसने से भला क्या हासिल होने वाला है? बलात्कार का मुआवजा तय करने पर।

दो वक्त की रोटी के लिए, जिस देश में एक-दूसरे के खून के प्यासे हों। रिश्तों को तार-तार किया जा रहा हो। पेट की भूख शांत करने के लिए, जिस देश में मां 50 रुपये में जिगर के टुकड़े को बेच देती हो। गरीबी और पेट की खातिर। जिस देश में बेटी की इज्जत देहरी पर पहरेदारी करके खुद मां, नीलाम कराने को मजबूर हो। उस देश में अगर बलात्कार का मुआवजा 20 हजार से 3 लाख तक का सरकार खुद दिलवा रही हैं। तो इससे ज्यादा सहयोगी या मददगार, गरीबों की मसीहा सरकार भला कहां मिलेगी! इस स्कीम को सरकार का अहसान मानना चाहिए! देश की उन गरीब औरत-लड़की को, जो गरीबी के चलते पेट की भूख शांत करने के लिए, अपनी इज्जत का सौदा करने के लिए मजबूर हैं। चंद रुपयों में ।अहसान इसलिए कि, अब तक बलात्कार तो होता था, लेकिन ना न्याय मिलता था ना मुआवजा मिलता था। मुआवजा तो तब भी नहीं मिलना क्योंकी उप्पर से लेकर चपरासी तक बटने के बाद जो हाथ में आएगा उसके बारे में बोलना अभी जल्दबाजी होगी एक नए घोटाले के लिए भी रास्ता बनेगा अभी कल ही एनडीटीवी पर रविश जी बता रहे थे की राजस्थान के अस्पतालों में मुआवजे के लालच में पुरुषो का भी गर्वपाथ दिखा दिया उम्मीद है कि, वो दिन अब दूर नहीं होगा, जब गरीबी और भुखमरी से निपटने के लिए औरत-लड़की शर्म-लिहाज छोड़कर, खुद ही सड़क चलते कहने लगेंगी- “बाबू जी- मेरे साथ बलात्कार कर लीजिए।” बलात्कार का बाजिव ह़क यानि 20 हजार से 3 लाख तक का मुआवजा पाने के लिए। चलिये दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में किसी को तो याद आयी। बलात्कार का बाजिव ह़क दिलाने की बात। इस नेक कार्य के लिए धन्यवाद दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र का !

कलमाड़ी की बीमारी-राजपरिवार को बचाने की चाल

कोर्ट में कलमाड़ी के वकील ने एक अपील दायर की है कि, कलमाड़ी को भूलने की बीमारी "डिमेंशिया" हों गई है जो कि, ये राबर्ट बढेरा और सोनिया गाँधी को कॉमनवेल्थ घोटाले से बचाने की कांग्रेस की पूरी तैयारी है.

अजीब बात है कलमाड़ी केंद्र में मंत्री रहे, आई ओ सी के चीफ रहे. कई खेल संघों के चीफ रहे, आयोजन समिति के चीफ रहे. सांसद रहे खुद एक माने-जाने उद्योगपति है कई 5 स्टार होटलों के मालिक है पूरे देश में कई पेट्रोल पम्प उनके है. इनता सब कुछ वो एक साथ मैनेज करते है, भूलने की बीमारी एक दम अचानक किसी को नहीं होती, एक बीमारी है "पर्किंसन" वो इंसान को अस्सी साल के बाद होती है लेकिन वो भी एकदम अचानक नहीं होती कि, कोई अरबो रूपये के घोटाले में जेल जाये फिर बोले की वो सब कुछ भूल गया.

गुलाम मंडल खेलों के घोटाले में खेल गांव के कमरों और स्डेडियम की पूरी साज सज्जा राबर्ट बढेरा की कम्पनी ने किया था और कांग्रेस अच्छी तरह समझती है कि , अगर कलमाड़ी ने अपना मुंह खोल दिया तो सोनिया और उनके "राजपरिवार" की हकीकत पूरे देश के सामने आ जायेगी.कलमाड़ी के वकील कि, ये अपील इस पूरे केस को खत्म कर देने की साजिश है. कानून में भूलने की बीमारी को एक मनोरोग का दर्जा मिला है और हमारे देश का कानून किसी भी मनोरोगी के बयान को सही नहीं मानता. फिर कलमाड़ी के वकील इस मनोरोग के दम पर कलमाडी की रिहाई भी करवा लेंगे . क्योंकि कानून के हिसाब से किसी भी मनोरोगी को जेल में नहीं रखा जा सकता .एक बार कलमाड़ी मनोरोगी घोषित हो गए तब कलमाड़ी अगर अपने बयान में किसी का नाम भी लेते है तो कोई मामूली वकील भी उनके बयान को उनकी बीमारी का आधार बना कर एक "पागल का बकवास " करार देकर उसके प्रामाणिक होने पर ही सवाल उठा देगा. तब ना कलमाड़ी का कुछ बिगड़ेगा और ना ही इस घोटाले में लिप्त अन्यो का.

लेकिन एक बात हमारी समझ में नहीं आती कि, एक तरफ कलमाड़ी अपने को बीमार बता रहे है और एक तरफ संसद के अधिवेशन में भाग लेने की अपील करते है. सच में भारत का कानून कभी भी किसी नेता खासकर कांग्रेसी नेता का कुछ नहीं बिगाड सकता. क्योकि हाकिम भी ये ही है और इज़रदार भी!

Monday, July 25, 2011

कलमाड़ी को भूलने की बीमारी-कांग्रेस के राजपरिवार को बचाने की चाल

कोर्ट में कलमाड़ी के वकील ने एक अपील दायर की है कि, कलमाड़ी को भूलने की बीमारी "डिमेंशिया" हों गई है जो कि, ये राबर्ट बढेरा और सोनिया गाँधी को कॉमनवेल्थ घोटाले से बचाने की कांग्रेस की पूरी तैयारी है.

अजीब बात है कलमाड़ी केंद्र में मंत्री रहे, आई ओ सी के चीफ रहे. कई खेल संघों के चीफ रहे, आयोजन समिति के चीफ रहे. सांसद रहे खुद एक माने-जाने उद्योगपति है कई 5 स्टार होटलों के मालिक है पूरे देश में कई पेट्रोल पम्प उनके है. इनता सब कुछ वो एक साथ मैनेज करते है, भूलने की बीमारी एक दम अचानक किसी को नहीं होती, एक बीमारी है "पर्किंसन" वो इंसान को अस्सी साल के बाद होती है लेकिन वो भी एकदम अचानक नहीं होती कि, कोई अरबो रूपये के घोटाले में जेल जाये फिर बोले की वो सब कुछ भूल गया.

गुलाम मंडल खेलों के घोटाले में खेल गांव के कमरों और स्डेडियम की पूरी साज सज्जा राबर्ट बढेरा की कम्पनी ने किया था और कांग्रेस अच्छी तरह समझती है कि , अगर कलमाड़ी ने अपना मुंह खोल दिया तो सोनिया और उनके "राजपरिवार" की हकीकत पूरे देश के सामने आ जायेगी.कलमाड़ी के वकील कि, ये अपील इस पूरे केस को खत्म कर देने की साजिश है. कानून में भूलने की बीमारी को एक मनोरोग का दर्जा मिला है और हमारे देश का कानून किसी भी मनोरोगी के बयान को सही नहीं मानता. फिर कलमाड़ी के वकील इस मनोरोग के दम पर कलमाडी की रिहाई भी करवा लेंगे . क्योंकि कानून के हिसाब से किसी भी मनोरोगी को जेल में नहीं रखा जा सकता .एक बार कलमाड़ी मनोरोगी घोषित हो गए तब कलमाड़ी अगर अपने बयान में किसी का नाम भी लेते है तो कोई मामूली वकील भी उनके बयान को उनकी बीमारी का आधार बना कर एक "पागल का बकवास " करार देकर उसके प्रामाणिक होने पर ही सवाल उठा देगा. तब ना कलमाड़ी का कुछ बिगड़ेगा और ना ही इस घोटाले में लिप्त अन्यो का.

लेकिन एक बात हमारी समझ में नहीं आती कि, एक तरफ कलमाड़ी अपने को बीमार बता रहे है और एक तरफ संसद के अधिवेशन में भाग लेने की अपील करते है. सच में भारत का कानून कभी भी किसी नेता खासकर कांग्रेसी नेता का कुछ नहीं बिगाड सकता. क्योकि हाकिम भी ये ही है और इज़रदार भी!

Thursday, July 21, 2011

क्या सिर्फ गुजरात पर चिल्लाओगो मोमबत्ती वालो?

अरे कंहा हो मोमबत्तीवालों, कंहा हो रिट-पिटीशन वालों? मुम्बई में बम ब्लास्ट का एक संदिग्ध आतंकी का भाई पूछताछ के बाद मर गया? क्या इस पर शोर नही मचाओगे? क्या सिर्फ़ गुजरात में ही चिल्लाओगे?

मुंबई बम विस्फोट के बाद एक
संदिग्ध आतंकी के भाई से मुंबई पुलिस की पूछताछ के बाद मौत हो गई थी | मुझे लगा कि बम ब्लास्ट में मरे लोगों से ज्यादा संदिग्ध की मौत पर रोना-धोना होगा | जैसा कि गुजरात में होता आया है | और आज तक लगातार रोया जा रहा है | मगर अफ़सोस कोई नही रोया उस गरीब की मौत पर | ना कोई मोमबत्तीवाला, ना तीस्ता सीतलवाड़, ना कोई सोशलाईट्स, ना कोई कानून-विशेषज्ञ, ना कोई रिट-पिटीशन का थोक दुकानदार, ना ही विदेसी चर्चो के टुकडो पर पलने वाला कॉरपोरेट कथित सेकूलर मीडिया, इस दुख की घड़ी में एक भी आगे नही आया | और तो और मुसलमानों के नये मसीहा अर्जुन सिंह के उत्तराधिकारी कांग्रेस की राजमाता के सचे सिपाही दिग्विजय सिंह को भी उस गरीब की मौत नज़र नही आई | दिल्ली के बाटला हाऊस में शहीद मोहन चंद शर्मा की शहादत पर सवाल उठा के शहीद की मौत का अपमान कर चुके दिग्विजय सिंह की खामोशी भी समझ से परे है | हर मामले में उन्हे आरएसएस नज़र आ जाता है इसमे उन्हे कुछ भी नज़र क्यों नही आया? समझ ही नही आया | खैर नरेन्द्र मोदी जरूर खुश हो रहे होंगे, चलो बम ब्लास्ट के आरोपी का भाई मुम्बई पुलिस के हत्थे चढा था | अगर गुजरात पुलिस से पूछताछ के दौरान मर जाता तो हो गया होता अभी तक़ मोदी का जीना हराम | मोदी ह्त्यारा है, मोदी की पुलिस हत्यारी है, मोदी के राज में अल्पसंख्यक सुरक्षित नही हैं, पुलिस वालों को गिरफ़्तार करो, मोदी के कहने पर मार डाला पुलिस वालो ने, उस पर मुकदमा चलाओ, फ़िर सब आ जाते, तीस्ता सीतलवाड़, कोई सोशलाईट्स, कोई याचिका एक्स्पर्ट आ जाता, फ़ाईव स्टार रुदालियां आ जाती, मोमबत्ती ब्रांड श्रद्धांजलि एक्स्पर्ट आ जाते | टीवी पर चर्चाये शुरू हो जाती, सब हो जाता | मगर वो मामला मुम्बई मे नही गुजरात में हुआ होता तो | गुजरात ही नही, छत्तीसगढ भी चल जाता | यंहा तो भूख से 6 आदिवासी मर गये हैं, कह कर अदालत का दरवाज़ा खट्खटा दिया था भाई लोगों ने | जब आब्ज़र्वर आये तो हैरान रह गये, पांच को ज़िंदा सामने देख कर, एक मरा भी था तो बीमारी से बहुत पहले | ये तो हाल है | छत्तीसगढ दिखेगा, गुजरात दिखेगा, बिहार दिखेगा और आजकल उत्तरप्रदेश भी दिख रहा है | कर्नाटक में गीता का पाठ दिख गया | बस नही दिखा तो मुम्बई पुलिस की पूछताछ के बाद हुई एक संदिग्ध आतंकी के भाई की मौत | कश्मीर में पण्डितों की दुर्दशा नही दिखती, उनको मजबूर करके भगा दिया जाना नही दिखता, उनके साथ हुआ अन्याय, अत्याचार नही दिखता, देश में गरीब जनता को लालच देकर दिन पर दिन बडता ईसाई धर्मांतरण नहीं दीखता, दिखता है तो गुजरात के दंगे आतंकी शोराबुदीन का एनकाऊण्टर, उत्तर प्रदेश की क़ानून व्यवस्था, और हर आतंकी घटना के पीछे आर एस एस के बड़े बड़े हाथ | देश की राजधानी की गिरती कानून व्यवस्था रोज होते बलात्कार, हत्या, चोरी डकेती नहीं दिखती, नक्सलियों की लूट-खसोट,अपराध नही दिखते, सामूहिक नरसंहार नही दिखते, रेल की पत्रीयो पर बारूदी विस्फ़ोट नज़र नही आते, हां एक राज्य सरकार का आदिवासियों को आत्मरक्षार्थ दिये गये हथियार दिख जाते हैं, उनको एसपीओ बनाना नज़र आ जाता है और भी बहुत कुछ नज़र आता है उन लोगों को मगर मुम्बई का मामला नज़र नही आता। क्यों चव्हाण और मोदी में फ़र्क़ है या गुजरात के संदिग्ध और मुम्बई के संदिग्ध में फ़र्क़ है, या फ़िर भाजपा और कांग्रेस की सरकार होने का फ़र्क़ है | खैर जनता भी अब समझने लगी है विदेशी धन के इशारों पर रोने-गाने और शोर मचाने वालों की असलियत को।

Monday, July 18, 2011

विंडसर प्लेस का नाम शोभा सिंह रखा जाये क्यों?

(भगत सिंह का दुर्लभ चित्र )
भारत की आजादी के इतिहास को जिन अमर शहीदों के रक्त से लिखा गया है, जिन शूरवीरों के बलिदान ने भारतीय जन-मानस को सर्वाधिक उद्वेलित किया है, जिन्होंने अपनी रणनीति से साम्राज्यवादियों को लोहे के चने चबवाए हैं, जिन्होंने परतन्त्रता की बेड़ियों को छिन्न-भिन्न कर स्वतंत्रता का मार्ग प्रशस्त किया है तथा जिन पर जन्मभूमि को गर्व है, उनमें से एक थे — भगत सिंह। शहीद-ए-आज़म भगत सिंह के बलिदान को शायद ही कोई भुला सकता है। आज भी देश का बच्चा-बच्चा उनका नाम इज्जत और फख्र के साथ लेता है, यहां तक कि जवाहरलाल नेहरू ने भी अपनी आत्मकथा में यह वर्णन किया है– भगत सिंह एक प्रतीक बन गया। सैण्डर्स के कत्ल का कार्य तो भुला दिया गया लेकिन चिह्न शेष बना रहा और कुछ ही माह में पंजाब का प्रत्येक गांव और नगर तथा बहुत कुछ उत्तरी भारत उसके नाम से गूंज उठा। उसके बारे में बहुत से गीतों की रचना हुई और इस प्रकार उसे जो लोकप्रियता प्राप्त हुई वह आश्चर्यचकित कर देने वाली थी। लेकिन दिल्ली सरकार उन के खिलाफ गवाही देने वाले एक भारतीय को मरणोपरांत ऐसा सम्मान देने की तैयारी में है जिससे उसे सदियों नहीं भुलाया जा सकेगा। यह शख्स कोई और नहीं, बल्कि औरतों के विषय में भौंडा लेखन कर शोहरत हासिल करने वाले लेखक खुशवंत सिंह का पिता सर शोभा सिंह है और दिल्ली सरकार विंडसर प्लेस का नाम उसके नाम पर करने का प्रस्ताव ला रही है। 

(सर शादी लाल)
जब दिल्ली में भगत सिंह पर अंग्रेजों की अदालत में मुकद्दमा चला तो भगत सिंह के खिलाफ गवाही देने को कोई तैयार नहीं हो रहा था। बड़ी मुश्किल से अंग्रेजों ने दो लोगों को गवाह बनने पर राजी कर लिया। इनमें से एक था शादी लाल और दूसरा था शोभा सिंह। मुकद्दमे में भगत सिंह को उनके दो साथियों समेत फांसी की सजा मिली। इधर  दोनों को वतन से की गई इस गद्दारी का इनाम भी मिला। दोनों को न सिर्फ सर की उपाधि दी गई बल्कि और भी कई दूसरे फायदे मिले। सोभा सिंह को दिल्ली में बेशुमार दौलत और करोड़ों के सरकारी निर्माण कार्यों के ठेके मिले जबकि शादी लाल को बागपत के नजदीक अपार संपत्ति मिली। आज भी श्यामली में शादी लाल के वंशजों के पास चीनी मिल और शराब कारखाना है। यह अलग बात है कि शादी लाल  को गांव वालों का ऐसा तिरस्कार झेलना पड़ा कि उसके मरने पर किसी भी दुकानदार ने अपनी दुकान से कफन का कपड़ा भी नहीं दिया। शादी लाल के लड़के उसका कफ़न दिल्ली से खरीद कर लाए तब जाकर उसका अंतिम संस्कार हो पाया था। 

(सर सोभा सिंह)
शोभा सिंह अपने साथी के मुकाबले खुशनसीब रहा। उसे और उसके पिता सुजान सिंह (जिसके नाम पर सुजान सिंह पार्क है) को राजधानी दिल्ली में हजारों एकड़ जमीन मिली  और खूब पैसा भी। उसके बेटे खुशवंत सिंह ने शौकिया तौर पर पत्रकारिता शुरु कर दी और बड़ी-बड़ी हस्तियों से संबंध बनाना शुरु कर दिया। सर सोभा सिंह के नाम से एक चैरिटबल ट्रस्ट भी बन गया जो अस्पतालों और दूसरी जगहों पर धर्मशालाएं आदि बनवाता तथा मैनेज करता है। आज  दिल्ली के कनॉट प्लेस के पास बाराखंबा रोड पर जिस स्कूल को मॉडर्न स्कूल कहते हैं वह शोभा सिंह की जमीन पर ही है और उसे सर शोभा सिंह स्कूल के नाम से जाना जाता था।  खुशवंत सिंह ने अपने संपर्कों का इस्तेमाल कर अपने पिता को एक देश भक्त और दूरद्रष्टा निर्माता साबित करने का भरसक कोशिश की।  

(खुशवंत सिंह)
खुशवंत सिंह ने खुद को इतिहासकार भी साबित करने की कोशिश की और कई घटनाओं की अपने ढंग से व्याख्या भी की। खुशवंत सिंह ने भी माना है कि उसका पिता शोभा सिंह 8 अप्रैल 1929 को उस वक्त सेंट्रल असेंबली मे मौजूद था जहां भगत सिंह और उनके साथियों ने धुएं वाला बम फेका था। बकौल खुशवंत सिह, बाद में शोभा सिंह ने यह गवाही तो दी, लेकिन इसके कारण भगत सिंह को फांसी नहीं हुई।शोभा सिंह 1978 तक जिंदा रहा और दिल्ली की हर छोटे बड़े आयोजन में बाकायदा आमंत्रित अतिथि की हैसियत से जाता था। हालांकि उसे कई जगह अपमानित भी होना पड़ा लेकिन उसने या उसके परिवार ने कभी इसकी फिक्र नहीं की। खुशवंत सिंह का ट्रस्ट हर साल सर शोभा सिंह मेमोरियल मेमोरियल लेक्चर भी आयोजित करवाता है. जिसमे बड़े-बड़े नेता और लेखक अपने विचार रखने आते हैं, बिना शोभा सिंह की असलियत जाने (य़ा फिर जानबूझ कर अनजान बने) उसकी तस्वीर पर फूल माला चढ़ा आते हैं। अब प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और खुशवंत सिंह की नज़दीकियों का ही असर कहा जाए कि दोनों एक दूसरे की तारीफ में जुटे हैं। प्रधानमंत्री ने बाकायदा पत्र लिख कर दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित से अनुरोध किया है कि कनॉट प्लेस के पास जनपथ पर बने विंडसर प्लेस का नाम सर शोभा सिंह के नाम पर कर दिया जाए।




 

Thursday, July 14, 2011

अब मारा तो मारा, अब मार के देख

मुंबई एक बार फिर दहल गया है और उसके चित्कार से सारा देश कांप उठा है। अगर फर्क नहीं पड़ा है तो सरकार को  और अमन  के ठेकेदारों पर। उनके लिए तो ये रुटीन है। हर बार की तरह वही रटा-रटाया बयान पढ़कर अपनी जिम्मेदारी से मुक्त हो गए हैं वे। शायद फिर अगली बार किसी और शहर में होने वाले धमाकों के बाद फिर से उसी बयान को पढऩे तक उन्हें याद भी नहीं रहेगा कि उन्होंने मुंबई में क्या कहा था? हर बार की तरह ये कहा जा रहा है कि आतंकवादियों को मुंहतोड़ जवाब दिया जाएगा। पता नहीं कब मुंहतोड़ जवाब देंगे हमारे अमन के ठेकेदार? ये मुंहतोड़ जवाब दें पायेंगे भी या नहीं ये तो वे ही जानें मगर आतंकवादी जरुर हर बार हमारा मुंह तोड़ रहे है। वे शान से आते हैं, हमारे मुंह पर इंटेलिजेंस की नाकामी का तमाचा जड़ते हैं और मजे से हमारे अपनों के बीच ही छिप जाते  है| हम हैं कि, मुंह तुड़वाने के बाद टूटा-फूटा मुंह लेकर बेशर्मी से चिल्लाते हैं, अब मारा तो मारा, अब मार के देख।

पता नहीं सुबह उठकर जब आईना देखते हैं तो शर्म आती भी है या नहीं। टूटा-फूटा मुंह लेकर कैसे कह देते हैं कि हम मुंह तोड़ जवाब देंगे। दरअसल हम आदी हो गए हैं मुंह तुड़वाने के। इतिहास भी बताता है कि आक्रांताओं ने लूटने के लिए भारत पर एक बार नहीं कई-कई बार आक्रमण किये हैं और जो इतिहास से नहीं सीखता  वो उसे दोहराने के लिए अभिशप्त होता हैं। आज भी आक्रांताओं के हमलों का सिलसिला जारी हैं। अब वे माल नहीं जान लूट रहे हैं। हमारे देश वासियों की सस्ती जान, जिसकी कीमत सरकारी नुमाइंदों के लिए शायद मुआवजे के कुछ लाख रूपयों से ज्यादा नहीं होती। उस जान की कीमत अगर पूछना है तो उस परिवार से पूछना चाहिए जहां खुशियों की जगह मातम पसर जाता है। उस बूढ़े मां-बाप से पूछना चाहिए जिनकी लाठी असमय टूट गई हो। उस जवान विधवा से पूछना चाहिए जिसे पूरा जीवन समाज में छिपे भेडिय़ों से बचते-बचाते गुजारना है। उन बच्चों से पूछिये जिन्हें अनाथ होने का मतलब ही नहीं मालूम। उस बहन से पूछिये जिसकी शादी के सपने भाई की मौत के साथ चूर-चूर हो गए। उनसे क्यों पूछेगा कोई ..?

बताने के लिए है हमारे पास हैं ना सडा हुहा सरकारी सिस्टम | एहसान  जताते हुहे बता देता है कि पिछली बार हमने चार लाख रुपए अनाउंस किया था, उसे बढ़ाकर हम पांच लाख कर रहे है। क्या पांच लाख एक इंसान की जिंदगी की कीमत है? कहां से सीखा ये गणित? किसने बताई ये कीमत इंसान की जान की? क्या चंद लाख रुपयों का मुआवजा बांट देना मृतकों के परिजनों के घावों को भर देगा? क्या हम हर बार मुआवजा ही बांटते रहेंगे? और क्या हम हर बार सिर्फ मुआवजा लेते ही रहेंगे| क्या हमारे पास कहने को और करने को कुछ बाकी ही नहीं रहा? कब तक कहते रहेंगे हम कि दोषियों को बख्शा नहीं जायेगा? कब तक गुर्राएंगे हम कि आतंकवादियों को मुंहतोड़ जवाब दिया जाएगा? मुंह तोडऩा तो दूर की बात कभी उन्हें ढूंढ भी पाएंगे हम? कितने शहर, कितनी बार और कितने धमाके, शायद याद भी नहीं होगा मरने वालों पर घडिय़ाली आंसू बहाने वालों को। हर धमाके के बाद इंटेलिजेंस पर नाकामी का आरोप थोपना और अगली नाकामी के लिए तैयार रहना शायद हमारी नियति हो गई है। हम अपने इतिहास से ना सही कम से कम वर्तमान में ही आतंकवादियों को दिए गए अमेरिका के जवाब से तो कुछ सीख सकते हैं? वल्र्ड ट्रेड सेंटर के धमाकों के बाद अमेरिका ने भी यही कहा था कि दोषियों को बख्शा नहीं जाएगा, आतंकवादियों को मुंहतोड़ जवाब दिया जाएगा और उसने दोषियों को बख्शा भी नहीं और आतंकवादियों को मुंहतोड़ जवाब भी दिया। उसने जो कहा वो कर दिखाया। मगर हम सिर्फ कहते हैं और कुछ करते ही नहीं। शायद ये बात आतंकवादी भी जान गए है तभी तो जब मन में आता है सिर उठाते है और धमाका करके छिप जाते हैं। हम हैं कि ,उन्हें ढूंढते ही रह जाते हैं और कभी कोई मिल भी जाता है खुद के दुर्भाग्य से तो भी हम उसे सजा देने के बजाए पालने-पोसने में लग जाते है। कुछ को तो हमने राजनैतिक मजबूरियों के कारण समझौते के तहत रिहा भी किया है। वो फोड़े अब नासूर बन चुके हैं।

पता नहीं क्यों हम हर धमाके को सिर्फ एक शहर से जोड़कर खामोश हो जाते हैं। क्या मुंबई इस देश का हिस्सा नहीं है? क्या मुंबई पर हमला हमारे देश पर हमला नहीं है? क्या मुंबईवासियों का घायल होना खुद सारे देश का घायल होना नहीं है? आखिर कब मानेंगे हम इसे अपने देश पर हमला? देश पर हमला यानी जमीन पर खींची हुई सीमाओं का अतिक्रमण ही नहीं है। मुंबई, अहमदाबाद, बैंगलुरु, जयपुर, दिल्ली जैसे शहरों में हुए बम ब्लास्ट के साथ-साथ छत्तीसगढ़ के जंगलों में नक्सलवादियों के बारूदी हमले भी देश पर हमला ही है। जब ये बात हमारे अमन के ठेकेदारों की समझ में आएगी तब शायद हम कुछ कहेंगे नहीं करके दिखाएंगे। तब हम मुंहतोड़ जवाब दिया जायेगा कहेंगे नहीं बल्कि मुंह तोड़कर दिखाएंगे। पता नहीं कब वो दिन आएगा जब हम हर हमले को देश पर हमला मानेंगे। तब तक तो यही कहा जा सकता है अब मारा तो मारा, अब मार के देख।

Friday, July 08, 2011

कोयले की दलाली में मनमोहन सिंह का मुह काला

देश का सबसे महाघोटालेबाज़ और कोई नहीं खुद प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह है जिसे लोग इमानदार कहते है.......अगर 2-जी स्पेक्ट्रम घोटाला देश के सभी घोटालों की जननी है तो आज जिस घोटाले का चौथी दुनिया पर्दाफाश कर रहा है, वह देश में हुए अब तक के सभी घोटालों का पितामह है. चौथी दुनिया आपको अब तक के सबसे बड़े घोटाले से रूबरू करा रहा है. देश में कोयला आवंटन के नाम पर करीब 26 लाख करोड़ रुपये की लूट हुई है. सबसे बड़ी बात है कि यह घोटाला प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के कार्यकाल में ही नहीं, उन्हीं के मंत्रालय में हुआ. यह है कोयला घोटाला. कोयले को काला सोना कहा जाता है, काला हीरा कहा जाता है, लेकिन सरकार ने इस हीरे का बंदरबांट कर डाला और अपने प्रिय-चहेते पूंजीपतियों एवं दलालों को मुफ्त ही दे दिया. आइए देखें, इतिहास की सबसे बड़ी लूट की पूरी कहानी क्या है.

सबसे पहले समझने की बात यह है कि देश में कोयला उत्खनन के संबंध में सरकारी रवैया क्या रहा है. 1973 में तत्कालीन प्रधानमंत्री स्वर्गीय इंदिरा गांधी ने दूरदर्शिता दिखाते हुए देश में कोयले का उत्खनन निजी क्षेत्र से निकाल लिया और इस एकाधिकार को सरकार के अधीन कर दिया. मतलब इसका राष्ट्रीयकरण कर दिया गया. शायद इसी कारण देश में कोयले का उत्पादन दिनोंदिन बढ़ता गया. आज यह 70 मिलियन मीट्रिक टन से बढ़कर लगभग 493 (2009) मिलियन मीट्रिक टन हो गया है. सरकार द्वारा कोयले के उत्खनन और विपणन का एकाधिकार कोल इंडिया लिमिटेड को दे दिया गया है. इस कारण अब कोयला नोटिफाइड रेट पर उपलब्ध है, जिससे कोयले की कालाबाज़ारी पर बहुत हद तक नियंत्रण पा लिया गया. लेकिन कैप्टिव ब्लॉक (कोयले का संशोधित क्षेत्र) के नाम पर कोयले को निजी क्षेत्र के लिए खोलने की सरकारी नीति से इसे बहुत बड़ा धक्का पहुंचा और यह काम यूपीए सरकार की अगुवाई में हुआ है.
 
सबसे बड़ी बात है कि यह घोटाला सरकारी फाइलों में दर्ज है और सरकार के ही आंकड़े चीख-चीखकर कह रहे हैं कि देश के साथ एक बार फिर बहुत बड़ा धोखा हुआ है. यह बात है 2006-2007 की, जब शिबू सोरेन जेल में थे और प्रधानमंत्री ख़ुद ही कोयला मंत्री थे. इस काल में दासी नारायण और संतोष बागडोदिया राज्यमंत्री थे. प्रधानमंत्री के नेतृत्व में कोयले के संशोधित क्षेत्रों को निजी क्षेत्र में सबसे अधिक तेजी से बांटा गया. सबसे बड़ी बात यह है कि ये कोयले की खानें सिर्फ 100 रुपये प्रति टन की खनिज रॉयल्टी के एवज़ में बांट दी गईं. ऐसा तब किया गया, जब कोयले का बाज़ार मूल्य 1800 से 2000 रुपये प्रति टन के ऊपर था. जब संसद में इस बात को लेकर कुछ सांसदों ने हंगामा किया,
 
तब शर्मसार होकर सरकार ने कहा कि माइंस और मिनरल (डेवलपमेंट एंड रेगुलेशन) एक्ट 1957 में संशोधन किया जाएगा और तब तक कोई भी कोयला खदान आवंटित नहीं की जाएगी. 2006 में यह बिल राज्यसभा में पेश किया गया और यह माना गया कि जब तक दोनों सदन इसे मंजूरी नहीं दे देते और यह बिल पास नहीं हो जाता, तब तक कोई भी कोयला खदान आवंटित नहीं की जाएगी. लेकिन यह विधेयक चार साल तक लोकसभा में जानबूझ कर लंबित रखा गया और 2010 में ही यह क़ानून में तब्दील हो पाया. इस दरम्यान संसद में किए गए वादे से सरकार मुकर गई और कोयले के ब्लॉक बांटने का गोरखधंधा चलता रहा. असल में इस विधेयक को लंबित रखने की राजनीति बहुत गहरी थी. इस विधेयक में साफ़-साफ़ लिखा था कि कोयले या किसी भी खनिज की खदानों के लिए सार्वजनिक नीलामी की प्रक्रिया अपनाई जाएगी. अगर यह विधेयक लंबित न रहता तो सरकार अपने चहेतों को मुफ्त कोयला कैसे बांट पाती. इस समयावधि में लगभग 21.69 बिलियन टन कोयले के उत्पादन क्षमता वाली खदानें निजी क्षेत्र के दलालों और पूंजीपतियों को मुफ्त दे दी गईं. इस दरम्यान प्रधानमंत्री भी कोयला मंत्री रहे और सबसे आश्चर्य की बात यह है कि उन्हीं के नीचे सबसे अधिक कोयले के ब्लॉक बांटे गए. ऐसा क्यों हुआ? प्रधानमंत्री ने हद कर दी, जब उन्होंने कुल 63 ब्लॉक बांट दिए. इन चार सालों में लगभग 175 ब्लॉक आनन-फानन में पूंजीपतियों और दलालों को मुफ्त में दे दिए गए
 
वैसे बाहर से देखने में इस घोटाले की असलियत सामने नहीं आती, इसलिए चौथी दुनिया ने पता लगाने की कोशिश की कि इस घोटाले से देश को कितना घाटा हुआ है. जो परिणाम सामने आया, वह स्तब्ध कर देने वाला है. दरअसल निजी क्षेत्र में कैप्टिव (संशोधित) ब्लॉक देने का काम 1993 से शुरू किया गया. कहने को ऐसा इसलिए किया गया कि कुछ कोयला खदानें खनन की दृष्टि से सरकार के लिए आर्थिक रूप से कठिन कार्य सिद्ध होंगी. इसलिए उन्हें निजी क्षेत्र में देने की ठान ली गई. ऐसा कहा गया कि मुना़फे की लालसा में निजी उपक्रम इन दूरदराज़ की और कठिन खदानों को विकसित कर लेंगे तथा देश के कोयला उत्पादन में वृद्धि हो जाएगी. 1993 से लेकर 2010 तक 208 कोयले के ब्लॉक बांटे गए, जो कि 49.07 बिलियन टन कोयला था. इनमें से 113 ब्लॉक निजी क्षेत्र में 184 निजी कंपनियों को दिए गए, जो कि 21.69 बिलियन टन कोयला था. अगर बाज़ार मूल्य पर इसका आकलन किया जाए तो 2500 रुपये प्रति टन के हिसाब से इस कोयले का मूल्य 5,382,830.50 करोड़ रुपये निकलता है. अगर इसमें से 1250 रुपये प्रति टन काट दिया जाए, यह मानकर कि 850 रुपये उत्पादन की क़ीमत है और 400 रुपये मुनाफ़ा, तो भी देश को लगभग 26 लाख करोड़ रुपये का राजस्व घाटा हुआ. तो यह हुआ घोटालों का बाप. आज तक के इतिहास का सबसे बड़ा घोटाला और शायद दुनिया का सबसे बड़ा घोटाला होने का गौरव भी इसे ही मिलेगा. तहक़ीक़ात के दौरान चौथी दुनिया को कुछ ऐसे दस्तावेज हाथ लगे, जो चौंकाने वाले खुलासे कर रहे थे. इन दस्तावेजों से पता चलता है कि इस घोटाले की जानकारी सीएजी (कैग) को भी है. तो सवाल यह उठता है कि अब तक इस घोटाले पर सीएजी चुप क्यों है?
 
देश की खनिज संपदा, जिस पर 120 करोड़ भारतीयों का समान अधिकार है, को इस सरकार ने मुफ्त में अनैतिक कारणों से प्रेरित होकर बांट दिया. अगर इसे सार्वजनिक नीलामी प्रक्रिया अपना कर बांटा जाता तो भारत को इस घोटाले से हुए 26 लाख करोड़ रुपये के राजस्व घाटे से बचाया जा सकता था और यह पैसा देशवासियों के हितों में ख़र्च किया जा सकता था.
यह सरकार जबसे सत्ता में आई है, इस बात पर ज़ोर दे रही है कि विकास के लिए देश को ऊर्जा माध्यमों के दृष्टिकोण से स्वावलंबी बनाना ज़रूरी है. लेकिन अभी तक जो बात सामने आई है, वह यह है कि प्रधानमंत्री और बाक़ी कोयला मंत्रियों ने कोयले के ब्लॉक निजी खिलाड़ियों को मुफ्त में बांट दिए. जबकि इस सार्वजनिक संपदा की सार्वजनिक और पारदर्शी नीलामी होनी चाहिए थी. नीलामी से अधिकाधिक राजस्व मिलता, जिसे देश में अन्य हितकारी कार्यों में लगाया जा सकता था, लेकिन सरकार ने ऐसा नहीं किया. जब इस मामले को संसद में उठाया गया तो सरकार ने संसद और लोगों को गुमराह करने का काम किया. सरकारी विधेयक लाने की बात कही गई, जिसके तहत यह नीलामी की जा सकेगी, लेकिन यह विधेयक चार साल तक लोकसभा में लंबित रखा गया, ताकि सरकार के जिन निजी खिलाड़ियों के साथ काले संबंध हैं, उन्हें इस दरम्यान कोयले के ब्लॉक जल्दी-जल्दी बांटकर ख़त्म कर दिए जाएं. इसमें कितनी रकम का लेन-देन हुआ होगा, यह ज़ाहिर सी बात है.
 
लेकिन अनियमितताएं यहीं ख़त्म नहीं हो जातीं. एक ऐसी बात सामने आई है, जो चौंका देने वाली है. सरकारी नियमों के अनुसार, कोयले के ब्लॉक आवंटित करने के लिए भी कुछ नियम हैं, जिनकी साफ़ अनदेखी कर दी गई. ब्लॉक आवंटन के लिए कुछ सरकारी शर्तें होती हैं, जिन्हें किसी भी सूरत में अनदेखा नहीं किया जा सकता. ऐसी एक शर्त यह है कि जिन खदानों में कोयले का खनन सतह के नीचे होना है, उनमें आवंटन के 36 माह बाद (और यदि वन क्षेत्र में ऐसी खदान है तो यह अवधि छह महीने बढ़ा दी जाती है) खनन प्रक्रिया शुरू हो जानी चाहिए. यदि खदान ओपन कास्ट किस्म की है तो यह अवधि 48 माह की होती है. (जिसमें वन क्षेत्र हो तो पहले की तरह ही छह महीने की छूट मिलती है.) अगर इस अवधि में काम शुरू नहीं होता है तो खदान मालिक का लाइसेंस रद्द कर दिया जाता है. समझने वाली बात यह है कि इस प्रावधान को इसलिए रखा गया है, ताकि खदान और कोयले का उत्खनन बिचौलियों के हाथ न लगे, जो सीधे-सीधे तो कोयले का काम नहीं करते, बल्कि खदान ख़रीद कर ऐसे व्यापारियों या
उद्योगपतियों को बेच देते हैं, जिन्हें कोयले की ज़रूरत है. इस गोरखधंधे में बिचौलिए मुंहमांगे और अनाप-शनाप दामों पर खदानें बेच सकते हैं. लेकिन सरकार ने ऐसी कई खदानों का लाइसेंस रद्द नहीं किया, जो इस अवधि के भीतर उत्पादन शुरू नहीं कर पाईं. ऐसा इसलिए, क्योंकि आवंटन के समय बहुत बड़ी मात्रा में ऐसे ही बिचौलियों को खदानें आवंटित की गई थीं, ताकि वे उन्हें आगे चलकर उद्योगपतियों को आसमान छूती क़ीमतों पर बेच सकें. अब यदि सरकार और बिचौलियों के बीच साठगांठ नहीं थी तो ऐसा क्यों किया गया? यह काम श्रीप्रकाश जायसवाल का है, लेकिन आज तक उन्होंने इस पर कोई कार्रवाई नहीं की है. 2003 तक 40 ब्लॉक बांटे गए थे, जिनमें अब तक सिर्फ 24 ने उत्पादन शुरू किया है. तो बाक़ी 16 कंपनियों के लाइसेंस ख़ारिज क्यों नहीं किए गए? 2004 में 4 ब्लॉक बांटे गए थे, जिनमें आज तक उत्पादन शुरू नहीं हो पाया. 2005 में 22 ब्लॉक आवंटित किए गए, जिनमें आज तक केवल 2 ब्लॉकों में ही उत्पादन शुरू हो पाया है. इसी तरह 2006 में 52, 2007 में 51, 2008 में 22, 2009 में 16 और 2010 में एक ब्लॉक का आवंटन हुआ, लेकिन 18 जनवरी 2011 तक की रिपोर्ट के अनुसार, कोई भी ब्लॉक उत्पादन शुरू होने की अवस्था में नहीं है. पहले तो बिचौलियों को ब्लॉक मुफ्त दिए गए, जिसके लिए माइंस और मिनरल एक्ट में संशोधन को लोकसभा में चार साल तक रोके रखा गया. फिर जब इन बिचौलियों की खदानों में उत्पादन शुरू नहीं हुआ (क्योंकि ये उत्पादन के लिए आवंटित ही नहीं हुई थीं), तो भी इनके लाइसेंस रद्द नहीं किए गए. सरकार और बिचौलियों एवं फर्ज़ी कंपनियों के बीच क्या साठगांठ है, यह समझने के लिए रॉकेट साइंस पढ़ना ज़रूरी नहीं है. अगर ऐसा न होता तो आज 208 ब्लॉकों में से स़िर्फ 26 में उत्पादन हो रहा हो, ऐसा न होता.
 
इस सरकार की कथनी और करनी में ज़मीन-आसमान का फर्क़ है. सरकार कहती है कि देश को ऊर्जा क्षेत्र में स्वावलंबी बनाना आवश्यक है. देश में ऊर्जा की कमी है, इसलिए अधिक से अधिक कोयले का उत्पादन होना चाहिए. इसी उद्देश्य से कोयले का उत्पादन निजी क्षेत्र के लिए खोलना चाहिए, लेकिन इस सरकार ने विकास का नारा देकर देश की सबसे क़ीमती धरोहर बिचौलियों और अपने प्रिय उद्योगपतियों के नाम कर दी. ऐसा नहीं है कि सरकार के सामने सार्वजनिक नीलामी का मॉडल नहीं था और ऐसा भी नहीं कि सरकार के पास और कोई रास्ता नहीं था. महाराष्ट्र के माइनिंग डेवलपमेंट कॉरपोरेशन ने भी इस प्रक्रिया के चलते कोल इंडिया से कुछ ब्लॉक मुफ्त ले लिए. ये ब्लॉक थे अगरझरी, वरोरा, मार्की, जामनी, अद्कुली और गारे पेलम आदि. बाद में कॉरपोरेशन ने उक्त ब्लॉक निजी खिलाड़ियों को बेच दिए, जिससे उसे 750 करोड़ रुपये का फायदा हुआ. यह भी एक तरीक़ा था, जिससे सरकार इन ब्लॉकों को बेच सकती थी, लेकिन ब्लॉकों को तो मुफ्त ही बांट डाला गया. ऐसा भी नहीं है कि बिचौलियों के होने का सिर्फ कयास लगाया जा रहा है, बल्कि महाराष्ट्र की एक कंपनी जिसका कोयले से दूर-दूर तक लेना-देना नहीं था, ने कोयले के एक आवंटित ब्लॉक को 500 करोड़ रुपये में बेचकर अंधा मुनाफ़ा कमाया. मतलब यह कि सरकार ने कोयले और खदानों को दलाल पथ बना दिया, जहां पर खदानें शेयर बन गईं, जिनकी ख़रीद-फरोख्त चलती रही और जनता की धरोहर का चीरहरण होता रहा.
 
प्रणब मुखर्जी ने आम आदमी का बजट पेश करने की बात कही, लेकिन उनका ब्रीफकेस खुला और निकला जनता विरोधी बजट. अगर इस जनता विरोधी बजट को भी देखा जाए तो सामाजिक क्षेत्र को एक लाख साठ हज़ार करोड़ रुपये आवंटित हुए. मूल ढांचे (इन्फ्रास्ट्रकचर) को दो लाख चौदह हज़ार करोड़, रक्षा मंत्रालय को एक लाख चौसठ हज़ार करोड़ रुपये आवंटित किए गए. भारत का वित्तीय घाटा लगभग चार लाख बारह हज़ार करोड़ रुपये का है. टैक्स से होने वाली आमद नौ लाख बत्तीस हज़ार करोड़ रुपये है. 2011-12 के लिए कुल सरकारी ख़र्च बारह लाख सत्तावन हज़ार सात सौ उनतीस करोड़ रुपये है. अकेले यह कोयला घोटाला 26 लाख करोड़ का है. मतलब यह कि 2011-2012 में सरकार ने जितना ख़र्च देश के सभी क्षेत्रों के लिए नियत किया है, उसका लगभग दो गुना पैसा अकेले मुनाफाखोरों, दलालों और उद्योगपतियों को खैरात में दे दिया इस सरकार ने. मतलब यह कि आम जनता की तीन साल की कमाई पर लगा टैक्स अकेले इस घोटाले ने निगल लिया. मतलब यह कि इतने पैसों में हमारे देश की रक्षा व्यवस्था को आगामी 25 साल तक के लिए सुसज्जित किया जा सकता था. मतलब यह कि देश के मूल ढांचे को एक साल में ही चाक-चौबंद किया जा सकता था. सबसे बड़ी बात यह कि वैश्विक मंदी से उबरते समय हमारे देश का सारा क़र्ज़ (आंतरिक और बाह्य) चुकाया जा सकता था. विदेशी बैंकों में रखा काला धन आजकल देश का सिरदर्द बना हुआ है. बाहर देशों से अपना धन लाने से पहले इस कोयला घोटाले का धन वापस जनता के पास कैसे आएगा? 

(चौथी दुनिया समाचार पत्र और स्वदेसी भारत पीठ (न्यास)- अश्वनी कुमार सोनी की जानकारी के आधार पर )

Thursday, July 07, 2011

क्या सच में देश 15 अगस्त को अजाद हुहा था?

14 अगस्त 1947 की रात को जो कुछ हुआ है वो आजादी नहीं, बल्कि ट्रान्सफर ऑफ़ पॉवर का एग्रीमेंट हुआ था पंडित नेहरु और लोर्ड माउन्ट बेटन के बीच में | Transfer of Power और Independence ये दो अलग चीजे है | स्वतंत्रता और सत्ता का हस्तांतरण ये दो अलग चीजे है | और सत्ता का हस्तांतरण कैसे होता है ? आप देखते होंगे क़ि, एक पार्टी की सरकार है, वो चुनाव में हार जाये, दूसरी पार्टी की सरकार आती है तो दूसरी पार्टी का प्रधानमन्त्री जब शपथ ग्रहण करता है, तो वो शपथ ग्रहण करने के तुरंत बाद एक रजिस्टर पर हस्ताक्षर करता है, आप लोगों में से बहुतों ने देखा होगा, तो जिस रजिस्टर पर आने वाला प्रधानमन्त्री हस्ताक्षर करता है, उसी रजिस्टर को ट्रान्सफर ऑफ़ पॉवर की बुक कहते है और उस पर हस्ताक्षर के बाद पुराना प्रधानमन्त्री नए प्रधानमन्त्री को सत्ता सौंप देता है | और पुराना प्रधानमंत्री निकल कर बाहर चला जाता है | यही नाटक हुआ था 14 अगस्त 1947 की रात को 12 बजे | लार्ड माउन्ट बेटन ने अपनी सत्ता पंडित नेहरु के हाथ में सौंपी थी, और हमने कह दिया कि स्वराज्य आ गया | कैसा स्वराज्य और काहे का स्वराज्य ? अंग्रेजो के लिए स्वराज्य का मतलब क्या था ? और हमारे लिए स्वराज्य का मतलब क्या था ? ये भी समझ लीजिये | अंग्रेज कहते थे क़ि हमने स्वराज्य दिया, माने अंग्रेजों ने अपना राज तुमको सौंपा है ताकि तुम लोग कुछ दिन इसे चला लो जब जरुरत पड़ेगी तो हम दुबारा आ जायेंगे | ये अंग्रेजो का interpretation (व्याख्या) था | और हिन्दुस्तानी लोगों की व्याख्या क्या थी कि हमने स्वराज्य ले लिया | और इस संधि के अनुसार ही भारत के दो टुकड़े किये गए और भारत और पाकिस्तान नामक दो Dominion States बनाये गए हैं | ये Dominion State का अर्थ हिंदी में होता है एक बड़े राज्य के अधीन एक छोटा राज्य, ये शाब्दिक अर्थ है और भारत के सन्दर्भ में इसका असल अर्थ भी यही है | अंग्रेजी में इसका एक अर्थ है "One of the self-governing nations in the British Commonwealth" और दूसरा "Dominance or power through legal authority "| Dominion State और Independent Nation में जमीन आसमान का अंतर होता है | मतलब सीधा है क़ि हम (भारत और पाकिस्तान) आज भी अंग्रेजों के अधीन/मातहत ही हैं | दुःख तो ये होता है की उस समय के सत्ता के लालची लोगों ने बिना सोचे समझे या आप कह सकते हैं क़ि पुरे होशो हवास में इस संधि को मान लिया या कहें जानबूझ कर ये सब स्वीकार कर लिया | और ये जो तथाकथित आज़ादी आयी, इसका कानून अंग्रेजों के संसद में बनाया गया और इसका नाम रखा गया Indian Independence Act यानि भारत के स्वतंत्रता का कानून | और ऐसे धोखाधड़ी से अगर इस देश की आजादी आई हो तो वो आजादी, आजादी है कहाँ ? और इसीलिए गाँधी जी (महात्मा गाँधी) 14 अगस्त 1947 की रात को दिल्ली में नहीं आये थे | वो नोआखाली में थे | और कोंग्रेस के बड़े नेता गाँधी जी को बुलाने के लिए गए थे कि बापू चलिए आप | गाँधी जी ने मना कर दिया था | क्यों ? गाँधी जी कहते थे कि मै मानता नहीं कि कोई आजादी आ रही है | और गाँधी जी ने स्पस्ट कह दिया था कि ये आजादी नहीं आ रही है सत्ता के हस्तांतरण का समझौता हो रहा है | और गाँधी जी ने नोआखाली से प्रेस विज्ञप्ति जारी की थी | उस प्रेस स्टेटमेंट के पहले ही वाक्य में गाँधी जी ने ये कहा कि मै हिन्दुस्तान के उन करोडो लोगों को ये सन्देश देना चाहता हु कि ये जो तथाकथित आजादी (So Called Freedom) आ रही है ये मै नहीं लाया | ये सत्ता के लालची लोग सत्ता के हस्तांतरण के चक्कर में फंस कर लाये है | मै मानता नहीं कि इस देश में कोई आजादी आई है | और 14 अगस्त 1947 की रात को गाँधी जी दिल्ली में नहीं थे नोआखाली में थे | माने भारत की राजनीति का सबसे बड़ा पुरोधा जिसने हिन्दुस्तान की आज़ादी की लड़ाई की नीव रखी हो वो आदमी 14 अगस्त 1947 की रात को दिल्ली में मौजूद नहीं था | क्यों ? इसका अर्थ है कि गाँधी जी इससे सहमत नहीं थे | (नोआखाली के दंगे तो एक बहाना था असल बात तो ये सत्ता का हस्तांतरण ही था) और 14 अगस्त 1947 की रात को जो कुछ हुआ है वो आजादी नहीं आई .... ट्रान्सफर ऑफ़ पॉवर का एग्रीमेंट लागू हुआ था पंडित नेहरु और अंग्रेजी सरकार के बीच में | अब शर्तों की बात करता हूँ , सब का जिक्र करना तो संभव नहीं है लेकिन कुछ महत्वपूर्ण शर्तों की जिक्र जरूर करूंगा जिसे एक आम भारतीय जानता है और उनसे परिचित है .
इस संधि की शर्तों के मुताबिक हम आज भी अंग्रेजों के अधीन/मातहत ही हैं | वो एक शब्द आप सब सुनते हैं न Commonwealth Nations | अभी कुछ दिन पहले दिल्ली में Commonwealth Game हुए थे आप सब को याद होगा ही और उसी में बहुत बड़ा घोटाला भी हुआ है | ये Commonwealth का मतलब होता है समान सम्पति | किसकी समान सम्पति ? ब्रिटेन की रानी की समान सम्पति | आप जानते हैं ब्रिटेन की महारानी हमारे भारत की भी महारानी है और वो आज भी भारत की नागरिक है और हमारे जैसे 71 देशों की महारानी है वो | Commonwealth में 71 देश है और इन सभी 71 देशों में जाने के लिए ब्रिटेन की महारानी को वीजा की जरूरत नहीं होती है क्योंकि वो अपने ही देश में जा रही है लेकिन भारत के प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति को ब्रिटेन में जाने के लिए वीजा की जरूरत होती है क्योंकि वो दुसरे देश में जा रहे हैं | मतलब इसका निकाले तो ये हुआ कि या तो ब्रिटेन की महारानी भारत की नागरिक है या फिर भारत आज भी ब्रिटेन का उपनिवेश है इसलिए ब्रिटेन की रानी को पासपोर्ट और वीजा की जरूरत नहीं होती है अगर दोनों बाते सही है तो 15 अगस्त 1947 को हमारी आज़ादी की बात कही जाती है वो झूठ है | और Commonwealth Nations में हमारी एंट्री जो है वो एक Dominion State के रूप में है न क़ि Independent Nation के रूप में| इस देश में प्रोटोकोल है क़ि जब भी नए राष्ट्रपति बनेंगे तो 21 तोपों की सलामी दी जाएगी उसके अलावा किसी को भी नहीं | लेकिन ब्रिटेन की महारानी आती है तो उनको भी 21 तोपों की सलामी दी जाती है, इसका क्या मतलब है? और पिछली बार ब्रिटेन की महारानी यहाँ आयी थी तो एक निमंत्रण पत्र छपा था और उस निमंत्रण पत्र में ऊपर जो नाम था वो ब्रिटेन की महारानी का था और उसके नीचे भारत के राष्ट्रपति का नाम था मतलब हमारे देश का राष्ट्रपति देश का प्रथम नागरिक नहीं है | ये है राजनितिक गुलामी, हम कैसे माने क़ि हम एक स्वतंत्र देश में रह रहे हैं | एक शब्द आप सुनते होंगे High Commission ये अंग्रेजों का एक गुलाम देश दुसरे गुलाम देश के यहाँ खोलता है लेकिन इसे Embassy नहीं कहा जाता | एक मानसिक गुलामी का उदहारण भी देखिये ....... हमारे यहाँ के अख़बारों में आप देखते होंगे क़ि कैसे शब्द प्रयोग होते हैं - (ब्रिटेन की महारानी नहीं) महारानी एलिज़ाबेथ, (ब्रिटेन के प्रिन्स चार्ल्स नहीं) प्रिन्स चार्ल्स , (ब्रिटेन की प्रिंसेस नहीं) प्रिंसेस डैना (अब तो वो हैं नहीं), अब तो एक और प्रिन्स विलियम भी आ गए है | 

भारत का नाम INDIA रहेगा और सारी दुनिया में भारत का नाम इंडिया प्रचारित किया जायेगा और सारे सरकारी दस्तावेजों में इसे इंडिया के ही नाम से संबोधित किया जायेगा | हमारे और आपके लिए ये भारत है लेकिन दस्तावेजों में ये इंडिया है | संविधान के प्रस्तावना में ये लिखा गया है "India that is Bharat " जब क़ि होना ये चाहिए था "Bharat that was India " लेकिन दुर्भाग्य इस देश का क़ि ये भारत के जगह इंडिया हो गया | ये इसी संधि के शर्तों में से एक है | अब हम भारत के लोग जो इंडिया कहते हैं वो कहीं से भी भारत नहीं है | कुछ दिन पहले मैं एक लेख पढ़ रहा था अब किसका था याद नहीं आ रहा है उसमे उस व्यक्ति ने बताया था कि इंडिया का नाम बदल के भारत कर दिया जाये तो इस देश में आश्चर्यजनक बदलाव आ जायेगा और ये विश्व की बड़ी शक्ति बन जायेगा अब उस शख्स के बात में कितनी सच्चाई है मैं नहीं जानता, लेकिन भारत जब तक भारत था तब तक तो दुनिया में सबसे आगे था और ये जब से इंडिया हुआ है तब से पीछे, पीछे और पीछे ही होता जा रहा है | भारत के संसद में वन्दे मातरम नहीं गया जायेगा अगले 50 वर्षों तक यानि 1997 तक | 1997 में पूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर ने इस मुद्दे को संसद में उठाया तब जाकर पहली बार इस तथाकथित आजाद देश की संसद में वन्देमातरम गाया गया | 50 वर्षों तक नहीं गाया गया क्योंकि ये भी इसी संधि की शर्तों में से एक है | और वन्देमातरम को ले के मुसलमानों में जो भ्रम फैलाया गया वो अंग्रेजों के दिशानिर्देश पर ही हुआ था | इस गीत में कुछ भी ऐसा आपत्तिजनक नहीं है जो मुसलमानों के दिल को ठेस पहुचाये | आपत्तिजनक तो जन,गन,मन में है जिसमे एक शख्स को भारत भाग्यविधाता यानि भारत के हर व्यक्ति का भगवान बताया गया है या कहें भगवान से भी बढ़कर | 

इस संधि की शर्तों के अनुसार सुभाष चन्द्र बोस को जिन्दा या मुर्दा अंग्रेजों के हवाले करना था | यही वजह रही क़ि सुभाष चन्द्र बोस अपने देश के लिए लापता रहे और कहाँ मर खप गए ये आज तक किसी को मालूम नहीं है | समय समय पर कई अफवाहें फैली लेकिन सुभाष चन्द्र बोस का पता नहीं लगा और न ही किसी ने उनको ढूँढने में रूचि दिखाई | मतलब भारत का एक महान स्वतंत्रता सेनानी अपने ही देश के लिए बेगाना हो गया | सुभाष चन्द्र बोस ने आजाद हिंद फौज बनाई थी ये तो आप सब लोगों को मालूम होगा ही लेकिन महत्वपूर्ण बात ये है क़ि ये 1942 में बनाया गया था और उसी समय दूसरा विश्वयुद्ध चल रहा था और सुभाष चन्द्र बोस ने इस काम में जर्मन और जापानी लोगों से मदद ली थी जो कि अंग्रेजो के दुश्मन थे और इस आजाद हिंद फौज ने अंग्रेजों को सबसे ज्यादा नुकसान पहुँचाया था | और जर्मनी के हिटलर और इंग्लैंड के एटली और चर्चिल के व्यक्तिगत विवादों की वजह से ये द्वितीय विश्वयुद्ध हुआ था और दोनों देश एक दुसरे के कट्टर दुश्मन थे | एक दुश्मन देश की मदद से सुभाष चन्द्र बोस ने अंग्रेजों के नाकों चने चबवा दिए थे | एक तो अंग्रेज उधर विश्वयुद्ध में लगे थे दूसरी तरफ उन्हें भारत में भी सुभाष चन्द्र बोस की वजह से परेशानियों का सामना करना पड़ रहा था | इसलिए वे सुभाष चन्द्र बोस के दुश्मन थे | 

इस संधि की शर्तों के अनुसार भगत सिंह, चंद्रशेखर आजाद, अशफाकुल्लाह, रामप्रसाद विस्मिल जैसे लोग आतंकवादी थे और यही हमारे syllabus में पढाया जाता था बहुत दिनों तक | और अभी एक महीने पहले तक ICSE बोर्ड के किताबों में भगत सिंह को आतंकवादी ही बताया जा रहा था, वो तो भला हो कुछ लोगों का जिन्होंने अदालत में एक केस किया और अदालत ने इसे हटाने का आदेश दिया है (ये समाचार मैंने इन्टरनेट पर ही अभी कुछ दिन पहले देखा था) | आप भारत के सभी बड़े रेलवे स्टेशन पर एक किताब की दुकान देखते होंगे "व्हीलर बुक स्टोर" वो इसी संधि की शर्तों के अनुसार है | ये व्हीलर कौन था ? ये व्हीलर सबसे बड़ा अत्याचारी था | इसने इस देश क़ि हजारों माँ, बहन और बेटियों के साथ बलात्कार किया था | इसने किसानों पर सबसे ज्यादा गोलियां चलवाई थी | 1857 की क्रांति के बाद कानपुर के नजदीक बिठुर में व्हीलर और नील नामक दो अंग्रजों ने यहाँ के सभी 24 हजार लोगों को जान से मरवा दिया था चाहे वो गोदी का बच्चा हो या मरणासन्न हालत में पड़ा कोई बुड्ढा | इस व्हीलर के नाम से इंग्लैंड में एक एजेंसी शुरू हुई थी और वही भारत में आ गयी | भारत आजाद हुआ तो ये ख़त्म होना चाहिए था, नहीं तो कम से कम नाम भी बदल देते | लेकिन वो नहीं बदला गया क्योंकि ये इस संधि में है | 

इस संधि की शर्तों के अनुसार अंग्रेज देश छोड़ के चले जायेगे लेकिन इस देश में कोई भी कानून चाहे वो किसी क्षेत्र में हो नहीं बदला जायेगा | इसलिए आज भी इस देश में 34735 कानून वैसे के वैसे चल रहे हैं जैसे अंग्रेजों के समय चलता था | Indian Police Act, Indian Civil Services Act (अब इसका नाम है Indian Civil Administrative Act), Indian Penal Code (Ireland में भी IPC चलता है और Ireland में जहाँ "I" का मतलब Irish है वही भारत के IPC में "I" का मतलब Indian है बाकि सब के सब कंटेंट एक ही है, कौमा और फुल स्टॉप का भी अंतर नहीं है) Indian Citizenship Act, Indian Advocates Act, Indian Education Act, Land Acquisition Act, Criminal Procedure Act, Indian Evidence Act, Indian Income Tax Act, Indian Forest Act, Indian Agricultural Price Commission Act सब के सब आज भी वैसे ही चल रहे हैं बिना फुल स्टॉप और कौमा बदले हुए |इस संधि के अनुसार अंग्रेजों द्वारा बनाये गए भवन जैसे के तैसे रखे जायेंगे | शहर का नाम, सड़क का नाम सब के सब वैसे ही रखे जायेंगे | आज देश का संसद भवन, सुप्रीम कोर्ट, हाई कोर्ट, राष्ट्रपति भवन कितने नाम गिनाऊँ सब के सब वैसे ही खड़े हैं और हमें मुंह चिढ़ा रहे हैं | लार्ड डलहौजी के नाम पर डलहौजी शहर है , वास्को डी गामा नामक शहर है (हाला क़ि वो पुर्तगाली था ) रिपन रोड, कर्जन रोड, मेयो रोड, बेंटिक रोड, (पटना में) फ्रेजर रोड, बेली रोड, ऐसे हजारों भवन और रोड हैं, सब के सब वैसे के वैसे ही हैं | आप भी अपने शहर में देखिएगा वहां भी कोई न कोई भवन, सड़क उन लोगों के नाम से होंगे | गुजरात में एक शहर है सूरत, इस सूरत शहर में एक बिल्डिंग है उसका नाम है कूपर विला | अंग्रेजों को जब जहाँगीर ने व्यापार का लाइसेंस दिया था तो सबसे पहले वो सूरत में आये थे और सूरत में उन्होंने इस बिल्डिंग का निर्माण किया था | ये गुलामी का पहला अध्याय आज तक सूरत शहर में खड़ा है | 

हमारे यहाँ शिक्षा व्यवस्था अंग्रेजों की है क्योंकि ये इस संधि में लिखा है और मजे क़ि बात ये है क़ि अंग्रेजों ने हमारे यहाँ एक शिक्षा व्यवस्था दी और अपने यहाँ अलग किस्म क़ि शिक्षा व्यवस्था रखी है | हमारे यहाँ शिक्षा में डिग्री का महत्व है और उनके यहाँ ठीक उल्टा है | मेरे पास ज्ञान है और मैं कोई अविष्कार करता हूँ तो भारत में पूछा जायेगा क़ि तुम्हारे पास कौन सी डिग्री है ? अगर नहीं है तो मेरे अविष्कार और ज्ञान का कोई मतलब नहीं है | जबकि उनके यहाँ ऐसा बिलकुल नहीं है आप अगर कोई अविष्कार करते हैं और आपके पास ज्ञान है लेकिन कोई डिग्री नहीं हैं तो कोई बात नहीं आपको प्रोत्साहित किया जायेगा | नोबेल पुरस्कार पाने के लिए आपको डिग्री की जरूरत नहीं होती है | हमारे शिक्षा तंत्र को अंग्रेजों ने डिग्री में बांध दिया था जो आज भी वैसे के वैसा ही चल रहा है | ये जो 33 नंबर का पास मार्क्स आप देखते हैं वो उसी शिक्षा व्यवस्था क़ि देन है, मतलब ये है क़ि आप भले ही 67 नंबर में फेल है लेकिन 33 नंबर लाये है तो पास हैं, ऐसा शिक्षा तंत्र से सिर्फ गदहे ही पैदा हो सकते हैं और यही अंग्रेज चाहते थे | आप देखते होंगे क़ि हमारे देश में एक विषय चलता है जिसका नाम है Anthropology | जानते है इसमें क्या पढाया जाता है ? इसमें गुलाम लोगों क़ि मानसिक अवस्था के बारे में पढाया जाता है | और ये अंग्रेजों ने ही इस देश में शुरू किया था और आज आज़ादी के 64 साल बाद भी ये इस देश के विश्वविध्यालयो में पढाया जाता है और यहाँ तक क़ि सिविल सर्विस की परीक्षा में भी ये चलता है | 

इस संधि की शर्तों के हिसाब से हमारे देश में आयुर्वेद को कोई सहयोग नहीं दिया जायेगा मतलब हमारे देश की विद्या हमारे ही देश में ख़त्म हो जाये ये साजिस की गयी | आयुर्वेद को अंग्रेजों ने नष्ट करने का भरसक प्रयास किया था लेकिन ऐसा कर नहीं पाए | दुनिया में जितने भी पैथी हैं उनमे ये होता है क़ि पहले आप बीमार हों तो आपका इलाज होगा लेकिन आयुर्वेद एक ऐसी विद्या है जिसमे कहा जाता है क़ि आप बीमार ही मत पड़िए | आपको मैं एक सच्ची घटना बताता हूँ -जोर्ज वाशिंगटन जो क़ि अमेरिका का पहला राष्ट्रपति था वो दिसम्बर 1799 में बीमार पड़ा और जब उसका बुखार ठीक नहीं हो रहा था तो उसके डाक्टरों ने कहा क़ि इनके शरीर का खून गन्दा हो गया है जब इसको निकाला जायेगा तो ये बुखार ठीक होगा और उसके दोनों हाथों क़ि नसें डाक्टरों ने काट दी और खून निकल जाने की वजह से जोर्ज वाशिंगटन मर गया | ये घटना 1799 की है और 1780 में एक अंग्रेज भारत आया था और यहाँ से प्लास्टिक सर्जरी सीख के गया था | मतलब कहने का ये है क़ि हमारे देश का चिकित्सा विज्ञान कितना विकसित था उस समय | और ये सब आयुर्वेद की वजह से था और उसी आयुर्वेद को आज हमारे सरकार ने हाशिये पर पंहुचा दिया है | 

इस संधि के हिसाब से हमारे देश में गुरुकुल संस्कृति को कोई प्रोत्साहन नहीं दिया जायेगा | हमारे देश के समृद्धि और यहाँ मौजूद उच्च तकनीक की वजह ये गुरुकुल ही थे | और अंग्रेजों ने सबसे पहले इस देश की गुरुकुल परंपरा को ही तोडा था, मैं यहाँ लार्ड मेकॉले की एक उक्ति को यहाँ बताना चाहूँगा जो उसने 2 फ़रवरी 1835 को ब्रिटिश संसद में दिया था, उसने कहा था “I have traveled across the length and breadth of India and have not seen one person who is a beggar, who is a thief, such wealth I have seen in this country, such high moral values, people of such caliber, that I do not think we would ever conquer this country, unless we break the very backbone of this nation, which is her spiritual and cultural heritage, and, therefore, I propose that we replace her old and ancient education system, her culture, for if the Indians think that all that is foreign and English is good and greater than their own, they will lose their self esteem, their native culture and they will become what we want them, a truly dominated nation” | गुरुकुल का मतलब हम लोग केवल वेद, पुराण,उपनिषद ही समझते हैं जो की हमारी मुर्खता है अगर आज की भाषा में कहूं तो ये गुरुकुल जो होते थे वो सब के सब Higher Learning Institute हुआ करते थे | 

इस संधि में एक और खास बात है | इसमें कहा गया है क़ि अगर हमारे देश के (भारत के) अदालत में कोई ऐसा मुक़दमा आ जाये जिसके फैसले के लिए कोई कानून न हो इस देश में या उसके फैसले को लेकर सविंधान में भी कोई जानकारी न हो तो साफ़ साफ़ संधि में लिखा गया है क़ि ,वो सारे मुकदमों का फैसला अंग्रेजों के न्याय पद्धति के आदर्शों के आधार पर ही होगा, भारतीय न्याय पद्धति का आदर्श उसमे लागू नहीं होगा | कितनी शर्मनाक स्थिति है ये क़ि हमें अभी भी अंग्रेजों का ही अनुसरण करना होगा | भारत में आज़ादी की लड़ाई हुई तो वो ईस्ट इंडिया कम्पनी के खिलाफ था और संधि के हिसाब से ईस्ट इंडिया कम्पनी को भारत छोड़ के जाना था और वो चली भी गयी लेकिन इस संधि में ये भी है क़ि ईस्ट इंडिया कम्पनी तो जाएगी भारत से लेकिन बाकि 126 विदेशी कंपनियां भारत में रहेंगी और भारत सरकार उनको पूरा संरक्षण देगी | और उसी का नतीजा है क़ि ब्रुक बोंड, लिप्टन, बाटा, हिंदुस्तान लीवर (अब हिंदुस्तान यूनिलीवर) जैसी 126 कंपनियां आज़ादी के बाद इस देश में बची रह गयी और लुटती रही और आज भी वो सिलसिला जारी है |अंग्रेजी का स्थान अंग्रेजों के जाने के बाद वैसे ही रहेगा भारत में जैसा क़ि अभी (1946 में) है और ये भी इसी संधि का हिस्सा है | आप देखिये क़ि हमारे देश में, संसद में, न्यायपालिका में, कार्यालयों में हर कहीं अंग्रेजी, अंग्रेजी और अंग्रेजी है जब क़ि इस देश में 99% लोगों को अंग्रेजी नहीं आती है | और उन 1% लोगों क़ि हालत देखिये क़ि उन्हें मालूम ही नहीं रहता है क़ि, उनको पढना क्या है और UNO में जा के भारत के जगह पुर्तगाल का भाषण पढ़ जाते हैं | 

आप में से बहुत लोगों को याद होगा क़ि हमारे देश में आजादी के 50 साल बाद तक संसद में वार्षिक बजट शाम को 5:00 बजे पेश किया जाता था | जानते है क्यों ? क्योंकि जब हमारे देश में शाम के 5:00 बजते हैं तो लन्दन में सुबह के 11:30 बजते हैं और अंग्रेज अपनी सुविधा से उनको सुन सके और उस बजट की समीक्षा कर सके | इतनी गुलामी में रहा है ये देश | ये भी इसी संधि का हिस्सा है | 1939 में दूसरा विश्वयुद्ध शुरू हुआ तो अंग्रेजों ने भारत में राशन कार्ड का सिस्टम शुरू किया क्योंकि दूसरा  विश्वयुद्ध में अंग्रेजों को अनाज क़ि जरूरत थी और वे ये अनाज भारत से चाहते थे | इसीलिए उन्होंने यहाँ जनवितरण प्रणाली और राशन कार्ड क़ि शुरुआत क़ि | वो प्रणाली आज भी लागू है इस देश में क्योंकि वो इस संधि में है | और इस राशन कार्ड को पहचान पत्र के रूप में इस्तेमाल उसी समय शुरू किया गया और वो आज भी जारी है | जिनके पास राशन कार्ड होता था उन्हें ही वोट देने का अधिकार होता था | आज भी देखिये राशन कार्ड ही मुख्य पहचान पत्र है इस देश में | 

अंग्रेजों के आने के पहले इस देश में गायों को काटने का कोई कत्लखाना नहीं था | मुगलों के समय तो ये कानून था क़ि कोई अगर गाय को काट दे तो उसका हाथ काट दिया जाता था | अंग्रेज यहाँ आये तो उन्होंने पहली बार कलकत्ता में गाय काटने का कत्लखाना शुरू किया, पहला शराबखाना शुरू किया, पहला वेश्यालय शुरू किया और इस देश में जहाँ जहाँ अंग्रेजों की छावनी हुआ करती थी वहां वहां वेश्याघर बनाये गए, वहां वहां शराबखाना खुला, वहां वहां गाय के काटने के लिए कत्लखाना खुला | ऐसे पुरे देश में 355 छावनियां थी उन अंग्रेजों के | अब ये सब क्यों बनाये गए थे ये आप सब आसानी से समझ सकते हैं | अंग्रेजों के जाने के बाद ये सब ख़त्म हो जाना चाहिए था लेकिन नहीं हुआ क्योंक़ि ये भी इसी संधि में है | हमारे देश में जो संसदीय लोकतंत्र है वो दरअसल अंग्रेजों का वेस्टमिन्स्टर सिस्टम है | ये अंग्रेजो के इंग्लैंड क़ि संसदीय प्रणाली है | ये कहीं से भी न संसदीय है और न ही लोकतान्त्रिक है| लेकिन इस देश में वही सिस्टम है क्योंकि वो इस संधि में कहा गया है | और इसी वेस्टमिन्स्टर सिस्टम को महात्मा गाँधी बाँझ और वेश्या कहते थे (मतलब आप समझ गए होंगे) | 

ऐसी हजारों शर्तें हैं | मैंने अभी जितना जरूरी समझा उतना लिखा है | मतलब यही है क़ि इस देश में जो कुछ भी अभी चल रहा है वो सब अंग्रेजों का है हमारा कुछ नहीं है | अब आप के मन में ये सवाल हो रहा होगा क़ि पहले के राजाओं को तो अंग्रेजी नहीं आती थी तो वो खतरनाक संधियों (साजिस) के जाल में फँस कर अपना राज्य गवां बैठे लेकिन आज़ादी के समय वाले नेताओं को तो अच्छी अंग्रेजी आती थी फिर वो कैसे इन संधियों के जाल में फँस गए | इसका कारण थोडा भिन्न है क्योंकि आज़ादी के समय वाले नेता अंग्रेजों को अपना आदर्श मानते थे इसलिए उन्होंने जानबूझ कर ये संधि क़ि थी | वो मानते थे क़ि अंग्रेजों से बढियां कोई नहीं है इस दुनिया में | भारत की आज़ादी के समय के नेताओं के भाषण आप पढेंगे तो आप पाएंगे क़ि वो केवल देखने में ही भारतीय थे लेकिन मन,कर्म और वचन से अंग्रेज ही थे | वे कहते थे क़ि सारा आदर्श है तो अंग्रेजों में, आदर्श शिक्षा व्यवस्था है तो अंग्रेजों की, आदर्श अर्थव्यवस्था है तो अंग्रेजों की, आदर्श चिकित्सा व्यवस्था है तो अंग्रेजों की, आदर्श कृषि व्यवस्था है तो अंग्रेजों की, आदर्श न्याय व्यवस्था है तो अंग्रेजों की, आदर्श कानून व्यवस्था है तो अंग्रेजों की | हमारे आज़ादी के समय के नेताओं को अंग्रेजों से बड़ा आदर्श कोई दिखता नहीं था और वे ताल ठोक ठोक कर कहते थे क़ि हमें भारत अंग्रेजों जैसा बनाना है | अंग्रेज हमें जिस रस्ते पर चलाएंगे उसी रास्ते पर हम चलेंगे | इसीलिए वे ऐसी मूर्खतापूर्ण संधियों में फंसे | अगर आप अभी तक उन्हें देशभक्त मान रहे थे तो ये भ्रम दिल से निकाल दीजिये | और आप अगर समझ रहे हैं क़ि वो ABC पार्टी के नेता ख़राब थे या हैं तो XYZ पार्टी के नेता भी दूध के धुले नहीं हैं | आप किसी को भी अच्छा मत समझिएगा क्योंक़ि आज़ादी के बाद के इन 64 सालों में सब ने चाहे वो राष्ट्रीय पार्टी हो या प्रादेशिक पार्टी, प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से राष्ट्रीय स्तर पर सत्ता का स्वाद तो सबो ने चखा ही है | भारत क़ि गुलामी जो अंग्रेजों के ज़माने में थी, अंग्रेजों के जाने के 64 साल बाद आज 2011 में जस क़ि तस है क्योंकि हमने संधि कर रखी है और देश को इन खतरनाक संधियों के मकडजाल में फंसा रखा है | बहुत दुःख होता है अपने देश के बारे जानकार और सोच कर | मैं ये सब कोई ख़ुशी से नहीं लिखता हूँ ये मेरे दिल का दर्द होता है जो मैं आप लोगों से शेयर करता हूँ |ये सब बदलना जरूरी है लेकिन हमें सरकार नहीं व्यवस्था बदलनी होगी और आप अगर सोच रहे हैं क़ि कोई मसीहा आएगा और सब बदल देगा तो आप ग़लतफ़हमी में जी रहे हैं | कोई हनुमान जी, कोई राम जी, या कोई कृष्ण जी नहीं आने वाले | आपको और हमको ही ये सारे अवतार में आना होगा, हमें ही सड़कों पर उतरना होगा और और इस व्यवस्था को जड मूल से समाप्त करना होगा | भगवान भी उसी की मदद करते हैं जो अपनी मदद स्वयं करता है |

Wednesday, July 06, 2011

नेहरु की दृष्टि में गाँधी

गाँधी एव नेहरु
गांधी जी के सर्वाधिक प्रिय व खण्डित भारत के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने कहा - " ओह दैट आफुल ओल्ड हिपोक्रेट " Oh, that awful old hypocrite - ओह ! वह ( गांधी ) भयंकर ढोंगी बुड्ढा । यह पढकर आप चकित होगे कि क्या यह कथन सत्य है - गांधी जी के अनन्य अनुयायी व दाहिना हाथ माने जाने वाले जवाहर लाल नेहरू ने ऐसा कहा होगा , कदापि नहीं । किन्तु यह मध्याह्न के सूर्य की भाँति देदीप्यमान सत्य है - नेहरू ने ऐसा ही कहा था । प्रसंग लीजिये - सन 1955 में कनाडा के प्रधानमंत्री लेस्टर पीयरसन भारत आये थे । भारत के प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू के साथ उनकी भेंट हुई थी । भेंट की चर्चा उन्होंने अपनी पुस्तक " द इन्टरनेशनल हेयर्स " में की है - 
 सन 1955 में दिल्ली यात्रा के दौरान मुझे नेहरू को ठीक - ठीक समझने का अवसर मिला था । मुझे वह रात याद है , जब गार्डन पार्टी में हम दोनों साथ बैठे थे , रात के सात बज रहे थे और चाँदनी छिटकी हुई थी । उस पार्टी में नाच गाने का कार्यक्रम था । नाच शुरू होने से पहले नृत्यकार दौडकर आये और उन्होंने नेहरू के पाँव छुए फिर हम बाते करने लगे । उन्होंने गांधी के बारे में चर्चा की , उसे सुनकर मैं स्तब्ध हो गया । उन्होंने बताया कि गांधी कैसे कुशल एक्टर थे ? उन्होंने अंग्रेजों को अपने व्यवहार में कैसी चालाकी दिखाई ? अपने इर्द - गिर्द ऐसा घेरा बुना , जो अंग्रेजों को अपील करे । गांधी के बारे में मेरे सवाल के जबाब में उन्होंने कहा - Oh, that awful old hypocrite । नेहरू के कथन का अभिप्राय हुआ - " ओह ! वह भयंकर ढोंगी बुड्ढा " ।( ग्रन्थ विकास , 37 - राजापार्क , आदर्शनगर , जयपुर द्वारा प्रकाशित सूर्यनारायण चौधरी की ' राजनीति के अधखुले गवाक्ष ' पुस्तक से उदधृत अंश )
 
नेहरू द्वारा गांधी के प्रति व्यक्त इस कथन से आप क्या समझते है - नेहरू ने गांधी को बहुत निकट एवं गहराई से देखा था । वह भी उनके विरोधी होकर नहीं अपितु कट्टर अनुयायी होकर । फिर क्या कारण रहा कि वे गांधी जी के बारे में अपने उन दमित निश्कर्षो को स्वार्थवश या जनभयवश अपने देशवासियों के सामने प्रकट न कर सके , एक विदेशी प्रधानमंत्री के सामने प्रकट कर दिया ?

Tuesday, July 05, 2011

गाँधी खानदानो के ट्रस्ट सुचना कानून के दायरे से बहार क्यों?

सोनिया गाँधी के मालिकाना हक वाले फ़ाउण्डेशनों और ट्रस्टों के हिसाब-किताब और सम्पत्ति के बारे में कई  बार  जानने की कोशिश की गयी। सूचना के अधिकार से सम्बन्धित बहुत से स्वयंसेवी समूहों, कुछ खोजी पत्रकारों एवं कुछ स्वतन्त्र पत्रकारों ने कई बार कोशिश की पर भिरस्ट सरकार ने कोशिशो को परवान नहीं चड़ने दिया आपको ये जानकर हैरानी होगी कि पिछले 3-4 साल से माथाफ़ोड़ी करने के बावजूद अभी तक कोई खास जानकारी नहीं मिल सकी, कारण  केन्द्रीय सूचना आयुक्त ने यह निर्णय दिया है कि राजीव गाँधी फ़ाउण्डेशन (Rajiv Gandhi Foundation) तथा जवाहरलाल मेमोरियल फ़ण्ड (Jawaharlal Memorial Fund) जैसे संस्थान सूचना के अधिकार कानून के तहत अपनी सूचनाएं देने के लिये बाध्य नहीं हैं। मामला अभी भी हाइकोर्ट तक पहुँचा है और RTI के सक्रिय कार्यकर्ताओं ने सूचना आयुक्त के अड़ियल रवैये के बावजूद हार नहीं मानी है।RGF के बारे में सूचना का अधिकार माँगने पर अधिकारी ने यह जवाब देकर आवेदनकर्ता को टरका दिया कि राजीव गाँधी फ़ाउण्डेशन सूचना देने के लिये बाध्य नहीं है। यह फ़ाउण्डेशन एक सार्वजनिक उपक्रम नहीं माना जा सकता,क्योंकि इस फ़ाउण्डेशन को प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से कोई सरकारी अनुदान नहीं मिलता है, न ही सरकार की इसमें कोई भागीदारी है और न ही इसके ट्रस्टी बोर्ड के चयन/नियुक्ति में सरकार का कोई दखल होता है अतः इसे सूचना का अधिकार के कार्यक्षेत्र से बाहर रखा जाता है…”


उल्लेखनीय है कि 21 जून 1991 को पूर्व प्रधानमंत्री के आदर्शों एवं सपनों”(?) को साकार रूप देने तथा देशहित में इसका लाभ बच्चों, महिलाओं एवं समाज के वंचित वर्ग तक पहुँचाने के लिये राजीव गाँधी फ़ाउण्डेशन की स्थापना की गई थी। RTI कार्यकर्ता श्री षन्मुगा पात्रो ने सिर्फ़ इतना जानना चाहा था कि RGF द्वारा वर्तमान में कितने प्रोजेक्ट्स और कहाँ-कहाँ पर जनोपयोगी कार्य किया जा रहा हैपरन्तु श्री पात्रो को कोई जवाब नहीं मिलातब उन्होंने सूचना आयुक्त के पैनल में अपील की। आवेदन पर विचार करने बैठी आयुक्तों की पूर्ण बेंचजिसमें एमएम अंसारीएमएल शर्मा और सत्यानन्द मिश्रा शामिल थेने इस बात को स्वीकार किया कि राजीव गाँधी फ़ाउण्डेशन (RGF) की कुल औसत आय में केन्द्र सरकार का हिस्सा 4% से कम हैलेकिन फ़िर भी इसे सरकारी अनुदान प्राप्तसंस्था नहीं माना जा सकता। इस निर्णय के जवाब में अन्य RTI कार्यकर्ताओं ने तर्क दिया कि राजीव गाँधी फ़ाउण्डेशन की स्थापना की घोषणा केन्द्र सरकार के वित्त मंत्री द्वारा बजट भाषण में की गई थी। सरकार ने इस फ़ाउण्डेशन के समाजसेवा कार्यों के लिये अपनी तरफ़ से एक फ़ण्ड भी स्थापित किया था। इसी प्रकार राजीव गाँधी फ़ाउण्डेशन जिस इमारत से अपना मुख्यालय संचालित करता है वह भूमि भी उसे सरकार द्वारा कौड़ियों के मोल भेंट की गई थी। शहरी विकास मंत्रालय ने 28 दिसम्बर 1995 को इस फ़ाउण्डेशन के सेवाकार्यों(?) को देखते हुए जमीन और पूरी बिल्डिंग मुफ़्त कर दीजबकि आज की तारीख में इस इमारत के किराये का बाज़ार मूल्य ही काफ़ी ज्यादा हैक्या इसे सरकारी अनुदान नहीं माना जाना चाहियेपरन्तु यह तर्क और तथ्य भी खारिज” कर दिया गया।
 
इस सम्बन्ध में यह सवाल भी उठता है कि राजीव गाँधी फ़ाउण्डेशन को तो सरकार से आर्थिक मदद, जमीन और इमारत मिली है, फ़िर भी उसे सूचना के अधिकार के तहत नहीं माना जा रहा, जबकि ग्रामीण एवं शहरी स्तर पर ऐसी कई सहकारी समितियाँ हैं जो सरकार से फ़ूटी कौड़ी भी नहीं पातीं, फ़िर भी उन्हेंRTI के दायरे में रखा गया है। यहाँ तक कि कुछ पेढ़ियाँ और समितियाँ तो आम जनता से सीधा सम्बन्ध भी नहीं रखतीं फ़िर भी वे RTI के दायरे में हैं, लेकिन राजीव गाँधी फ़ाउण्डेशन नहीं है। क्या इसलिये कि यह फ़ाउण्डेशन देश के सबसेपवित्र परिवार”(???) से सम्बन्धित है?
 
1991 में राजीव गाँधी के निधन के पश्चात तत्कालीन उपराष्ट्रपति ने राजीव गाँधी के सपनों को साकार करने और लक्ष्यों की प्राप्ति के लिये एक ट्रस्ट के गठन का प्रस्ताव दिया और जनता से इस ट्रस्ट को मुक्त-हस्त से दान देने की अपील की।1991-92 के बजट भाषण में वित्तमंत्री ने इसकी घोषणा की और इस फ़ाउण्डेशन को अनुदान के रूप में 100 करोड़ रुपये दिये (1991 के समय के 100 करोड़, अब कितने हुए?)। इसी प्रकार के दो ट्रस्टों (फ़ण्ड) की स्थापना, एक बार आज़ादी के तुरन्त बाद 24 जनवरी 1948 को नेहरु ने नेशनल रिलीफ़ फ़ण्ड का गठन किया था तथा दूसरी बार चीन युद्ध के समय 5 नवम्बर 1962 को नेशनल डिफ़ेंस फ़ण्ड की स्थापना भी संसद में बजट भाषण के दौरान ही की गई और इसमें भी सरकार ने अपनी तरफ़ से कुछ अंशदान मिलाया और बाकी का आम जनता से लिया गया। आश्चर्य की बात है कि उक्त दोनों फ़ण्ड, अर्थात नेशनल रिलीफ़ फ़ण्ड और नेशनल डिफ़ेंस फ़ण्ड को सार्वजनिक हित का मानकर RTI के दायरे में रखा गया है, परन्तु राजीव गाँधी फ़ाउण्डेशन को नहीं
 

राजीव गाँधी फ़ाउण्डेशन को सरकार द्वारा नाममात्र के शुल्क पर 9500 वर्ग फ़ीट की जगह पर एक बंगला, दिल्ली के राजेन्द्र प्रसाद रोड पर दिया गया है। इस बंगले की न तो लाइसेंस फ़ीस जमा की गई है, न ही इसका कोई प्रापर्टी टैक्स भरा गया है। RGF को 1991 से ही FCRA (विदेशी मुद्रा विनियमन कानून 1976)के तहत छूट मिली हुई है, एवं इस फ़ाउण्डेशन को दान देने वालों को भी आयकर की धारा 80G के तहत छूट मिलती है, इसी प्रकार इस फ़ाउण्डेशन के नाम तले जो भी उपकरण इत्यादि आयात किये जाते हैं उन्हें भी साइंस एंड इंडस्ट्रियल रिसर्च संगठन (SIRO) के तहत 1997 से छूट मिलती है एवं उस सामान अथवा उपकरण की कीमत पर कस्टम्स एवं सेण्ट्रल एक्साइज़ ड्यूटी में छूट का प्रावधान किया गया है… आखिर इतनी मेहरबानियाँ क्यों?
 

हालांकि गत 4 वर्ष के संघर्ष के पश्चात अब 2 मई 2011 को दिल्ली हाइकोर्ट ने इस सिलसिले में केन्द्र सरकार को नोटिस भेजकर पूछा है कि राजीव गाँधी फ़ाउण्डेशन को RTI के दायरे में क्यों न लाया जाए? उल्लेखनीय है कि हाल ही में मुम्बई में रिलायंस एनर्जी को भी RTI के दायरे में लाया गया है, इसके पीछे याचिकाकर्ताओं और आवेदन लगाने वालों का तर्क भी वही था कि चूंकि रिलायंस एनर्जी (Reliance Energy), आम जनता से सम्बन्धित रोजमर्रा के काम (बिजली सप्लाय) देखती है, इसे सरकार से अनुदान भी मिलता है, इसे सस्ती दरों पर ज़मीन भी मिली हुई है तो यह जनता के प्रति जवाबदेह होना चाहिये। अन्ततः महाराष्ट्र सरकार ने जनदबाव में रिलायंस एनर्जी को RTI के दायरे में लाया, अब देखना है कि राजीव गाँधी फ़ाउण्डेशन और इस जैसे तमाम ट्रस्ट, जिस पर गाँधी परिवार कुण्डली जमाए बैठा है, कब RTI के दायरे में आते हैं। जब राजीव गाँधी फ़ाउण्डेशन सारी सरकारी मेहरबानियाँ, छूट, कर-लाभ इत्यादि ले ही रहा है तो फ़िर सूचना के अधिकार कानून के तहत सारी सूचनाएं सार्वजनिक करने में हिचकिचाहट क्यों?

बाबा रामदेव के पीछे तो सारी सरकारी एजेंसियाँ हाथ-पाँव-मुँह धोकर पड़ गई थीं,क्या राजीव गाँधी फ़ाउण्डेशन, जवाहरलाल मेमोरियल ट्रस्ट इत्यादि की आज तक कभी किसी एजेंसी ने जाँच की है? स्वाभाविक है कि ऐसा सम्भव ही नहीं हैक्योंकि जहाँ एक ओर दूसरों की सम्पत्ति का हिसाब मांगने का अधिकार सिर्फ़ कांग्रेस को है वहीं दूसरी ओर अपनी सम्पत्ति को कॉमनवेल्थ, आदर्श, 2G औरKG गैस बेसिन जैसे पुण्य-कार्यों के जरिये ठिकाने लगाने का अधिकार भी उसी के पास सुरक्षित है पिछले 60 वर्षों से