Thursday, July 14, 2011

अब मारा तो मारा, अब मार के देख

मुंबई एक बार फिर दहल गया है और उसके चित्कार से सारा देश कांप उठा है। अगर फर्क नहीं पड़ा है तो सरकार को  और अमन  के ठेकेदारों पर। उनके लिए तो ये रुटीन है। हर बार की तरह वही रटा-रटाया बयान पढ़कर अपनी जिम्मेदारी से मुक्त हो गए हैं वे। शायद फिर अगली बार किसी और शहर में होने वाले धमाकों के बाद फिर से उसी बयान को पढऩे तक उन्हें याद भी नहीं रहेगा कि उन्होंने मुंबई में क्या कहा था? हर बार की तरह ये कहा जा रहा है कि आतंकवादियों को मुंहतोड़ जवाब दिया जाएगा। पता नहीं कब मुंहतोड़ जवाब देंगे हमारे अमन के ठेकेदार? ये मुंहतोड़ जवाब दें पायेंगे भी या नहीं ये तो वे ही जानें मगर आतंकवादी जरुर हर बार हमारा मुंह तोड़ रहे है। वे शान से आते हैं, हमारे मुंह पर इंटेलिजेंस की नाकामी का तमाचा जड़ते हैं और मजे से हमारे अपनों के बीच ही छिप जाते  है| हम हैं कि, मुंह तुड़वाने के बाद टूटा-फूटा मुंह लेकर बेशर्मी से चिल्लाते हैं, अब मारा तो मारा, अब मार के देख।

पता नहीं सुबह उठकर जब आईना देखते हैं तो शर्म आती भी है या नहीं। टूटा-फूटा मुंह लेकर कैसे कह देते हैं कि हम मुंह तोड़ जवाब देंगे। दरअसल हम आदी हो गए हैं मुंह तुड़वाने के। इतिहास भी बताता है कि आक्रांताओं ने लूटने के लिए भारत पर एक बार नहीं कई-कई बार आक्रमण किये हैं और जो इतिहास से नहीं सीखता  वो उसे दोहराने के लिए अभिशप्त होता हैं। आज भी आक्रांताओं के हमलों का सिलसिला जारी हैं। अब वे माल नहीं जान लूट रहे हैं। हमारे देश वासियों की सस्ती जान, जिसकी कीमत सरकारी नुमाइंदों के लिए शायद मुआवजे के कुछ लाख रूपयों से ज्यादा नहीं होती। उस जान की कीमत अगर पूछना है तो उस परिवार से पूछना चाहिए जहां खुशियों की जगह मातम पसर जाता है। उस बूढ़े मां-बाप से पूछना चाहिए जिनकी लाठी असमय टूट गई हो। उस जवान विधवा से पूछना चाहिए जिसे पूरा जीवन समाज में छिपे भेडिय़ों से बचते-बचाते गुजारना है। उन बच्चों से पूछिये जिन्हें अनाथ होने का मतलब ही नहीं मालूम। उस बहन से पूछिये जिसकी शादी के सपने भाई की मौत के साथ चूर-चूर हो गए। उनसे क्यों पूछेगा कोई ..?

बताने के लिए है हमारे पास हैं ना सडा हुहा सरकारी सिस्टम | एहसान  जताते हुहे बता देता है कि पिछली बार हमने चार लाख रुपए अनाउंस किया था, उसे बढ़ाकर हम पांच लाख कर रहे है। क्या पांच लाख एक इंसान की जिंदगी की कीमत है? कहां से सीखा ये गणित? किसने बताई ये कीमत इंसान की जान की? क्या चंद लाख रुपयों का मुआवजा बांट देना मृतकों के परिजनों के घावों को भर देगा? क्या हम हर बार मुआवजा ही बांटते रहेंगे? और क्या हम हर बार सिर्फ मुआवजा लेते ही रहेंगे| क्या हमारे पास कहने को और करने को कुछ बाकी ही नहीं रहा? कब तक कहते रहेंगे हम कि दोषियों को बख्शा नहीं जायेगा? कब तक गुर्राएंगे हम कि आतंकवादियों को मुंहतोड़ जवाब दिया जाएगा? मुंह तोडऩा तो दूर की बात कभी उन्हें ढूंढ भी पाएंगे हम? कितने शहर, कितनी बार और कितने धमाके, शायद याद भी नहीं होगा मरने वालों पर घडिय़ाली आंसू बहाने वालों को। हर धमाके के बाद इंटेलिजेंस पर नाकामी का आरोप थोपना और अगली नाकामी के लिए तैयार रहना शायद हमारी नियति हो गई है। हम अपने इतिहास से ना सही कम से कम वर्तमान में ही आतंकवादियों को दिए गए अमेरिका के जवाब से तो कुछ सीख सकते हैं? वल्र्ड ट्रेड सेंटर के धमाकों के बाद अमेरिका ने भी यही कहा था कि दोषियों को बख्शा नहीं जाएगा, आतंकवादियों को मुंहतोड़ जवाब दिया जाएगा और उसने दोषियों को बख्शा भी नहीं और आतंकवादियों को मुंहतोड़ जवाब भी दिया। उसने जो कहा वो कर दिखाया। मगर हम सिर्फ कहते हैं और कुछ करते ही नहीं। शायद ये बात आतंकवादी भी जान गए है तभी तो जब मन में आता है सिर उठाते है और धमाका करके छिप जाते हैं। हम हैं कि ,उन्हें ढूंढते ही रह जाते हैं और कभी कोई मिल भी जाता है खुद के दुर्भाग्य से तो भी हम उसे सजा देने के बजाए पालने-पोसने में लग जाते है। कुछ को तो हमने राजनैतिक मजबूरियों के कारण समझौते के तहत रिहा भी किया है। वो फोड़े अब नासूर बन चुके हैं।

पता नहीं क्यों हम हर धमाके को सिर्फ एक शहर से जोड़कर खामोश हो जाते हैं। क्या मुंबई इस देश का हिस्सा नहीं है? क्या मुंबई पर हमला हमारे देश पर हमला नहीं है? क्या मुंबईवासियों का घायल होना खुद सारे देश का घायल होना नहीं है? आखिर कब मानेंगे हम इसे अपने देश पर हमला? देश पर हमला यानी जमीन पर खींची हुई सीमाओं का अतिक्रमण ही नहीं है। मुंबई, अहमदाबाद, बैंगलुरु, जयपुर, दिल्ली जैसे शहरों में हुए बम ब्लास्ट के साथ-साथ छत्तीसगढ़ के जंगलों में नक्सलवादियों के बारूदी हमले भी देश पर हमला ही है। जब ये बात हमारे अमन के ठेकेदारों की समझ में आएगी तब शायद हम कुछ कहेंगे नहीं करके दिखाएंगे। तब हम मुंहतोड़ जवाब दिया जायेगा कहेंगे नहीं बल्कि मुंह तोड़कर दिखाएंगे। पता नहीं कब वो दिन आएगा जब हम हर हमले को देश पर हमला मानेंगे। तब तक तो यही कहा जा सकता है अब मारा तो मारा, अब मार के देख।

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