एक वे थे .. बैरिस्टर। पिता दीवान थे। फिर परिस्थिति ने उन्हें वकालत छोड़ कर मानव सेवा को हाथ में लेने के लिए प्रेरित किया।
आज उनको अपना आदर्श मान कर, कई लोग उनके विचारों के आधार पर लड़ाई लड़ रहे हैं। लड़ाई भ्रष्टाचार के ख़िलाफ़, लड़ाई देश का धन जो बाहर है उसे देश वापस लाने के लिए।
उनमें से एक इन दिनों सुर्ख़ियों में है ..
उन पर इल्जाम है,
१. वह संन्यासी हैं। उन्हें राजनीति नहीं करनी चाहिए।
२. वह योग छोड़कर कालेधन की बात क्यों करते हैं?
३. वह संन्यासी हैं, उन्हें कुछ राजनीतिक पार्टी अपने मतलब साधने के लिए अपने साथ लिए हुए हैं।
४. वह महिलाओं का सहारा लेकर, वेश बदल कर (महिलाओं के कपड़े पहन कर) अपनी जान बचाने के लिए भगा जाते हैं।
आज फ़ुरसत में इसी पर उनके विचार से विचार करें जिनके आदर्शों पर चलने की बात करते हैं सभी। वे भी, जो इनकी आलोचना करते हैं।
विलायत से पढ़कर बैरिस्टर बने। अपनी उम्र के ३६वें साल में ब्रह्मचर्य व्रत अपनाने की घोषणा करते हैं। महात्मा कहलाते हैं, बापू कहलाते हैं। लोगों के कहने पर तब के कांग्रेस की राजनीति करते हैं। देश को ग़ुलामी की जंज़ीरों से आज़ाद कराते हैं। सबको ख़ुशी होती है कि वह हमारे दल का, हमारी लड़ाई का नेतृत्व करते हैं।
इन्होंने गुरुकुल में योग की पढ़ाई की, योग शिक्षक बनते हैं, संन्यास ग्रहण करते हैं, लोग उन्हें बाबा कहते हैं। स्वामी कहते हैं।
वह जिसे लोग महात्मा या बापू कहते हैं, देश से बाहर जा रहे धन (ड्रेन ऑफ वेल्थ) को रोकने के लिए लड़ाई लड़ते हैं, स्वदेशी अपनाते हैं। तब की कांग्रेस उन्हें अपनी लड़ाई का हिस्सा बनाती है। लड़ाई लड़ती है।
ये, जिन्हें लोग बाबा या स्वामी कहते हैं, जो धन देश से बाहर चला गया है (काला धन/ब्लैक मनी) को देश में वापस लाने की लड़ाई लड़ते हैं। उस धन को देश का धन घोषित किया जाए, मांग करते हैं।
उनके दिनों में जालियांवाला कांड होता है, निहत्थे प्राणियों की “दिन-दहाड़े” हत्या कर दी जाती है।
इनकी, जिन्हें लोग स्वामी कहते है, बाबा कहते हैं, की मांग के बदले “रातों-रात” गोलियां बरसाई जाती है।
उन्हें, जिन्होंने उम्र के ३६वें साल में ब्रह्मचर्य ग्रहण किया, कभी नहीं कहा कि आप राजनीति क्यों करते हैं, बल्कि जब भी ज़रूरत पड़ी उन्हें कहते कि आप हमारी पार्टी को राह दिखाइए हमारे आन्दोलन का नेतृत्व कीजिए।
इन्हें कहते हैं तुम संन्यासी हो, बेटर यू शुल्ड कन्सेन्ट्रेट ऑन योर योगा एण्ड साधुगिरी, नहीं तो अगर हमें राजनीति सिखाने आए तो तुम्हें तुम्हारी सारी गांधीगिरी भुला देंगे।
मतलब उद्देश्य की प्राप्ति हेतु तब की कांग्रेस महात्मा का साथ ले तो कोई ग़लत नहीं, आज के स्वामी की कोई चर्चा करे तो वह साम्प्रदायिक हो गया?
तब यह राष्ट्रीयता कहलाता था, आज साम्प्रदायिकता, अराजकता!
अब देखें साधुओं की सांठ-गांठ किस पार्टी से किसकी रही। मैं क्या कहूंगा, खुशवन्त सिंह जी पूरा चिट्ठा सामने रख दिए हैं, हिन्दुस्तान में।
कहते हैं कि आज के बाबा, स्वामी, इस पार्टी से जुड़े हैं, उस पार्टी से जुड़े हैं। 12 जून के अखबार में खुशवंत सिंह का आलेख पढ़ा। आप खुद ही देख लिजीए कि स्वतंत्र भारत में नेताओं/पार्टियों से संतों के जुड़े रहने का इतिहास इस लिंक पर: - ¶FbSXF ¸FF³Fû ¹FF ·F»FF ¶FF¶FFAûÔ IYe Qbd³F¹FF AüSX ÀFSXIYFSX
इन्हें (बाबा/स्वामी) कुछ लोग कहते हैं कि महिलाओं का सहारा लेकर जान बचाते हैं …
मैं इस प्रसंग पर अपने ब्लॉग “विचार” पर लिखना चाहता था। पर “विचार” पर गांधी जी के जीवन से जुड़ी घटनाएं क्रम से चल रहीं हैं। और क्रम तोड़ कर वहां लिखना नहीं चाहता था इसलिए आज इस ब्लॉग पर फ़ुरसत में ज़रा विस्तृत से उस घटना का ज़िक्र कर लूं। लोगों को याद आए कि हमारे राष्ट्रपिता को भी जान बचाकर भागना पड़ा था, वह भी वेश बदल कर, महिलाओं के पीछे रह कर (छुपना शब्द का प्रयोग मैं नहीं कर रहा) जान बचाना पड़ा था। एक बड़ी लड़ाई लड़ने के लिए इस तरह के काम करने पड़ते हैं। अगर उस दिन बापू वैसा न किए होते तो शायद हमें आज़ादी की लड़ाई के लिए नेतृत्व देने वाला उस दिन ज़िन्दा न बचता। मुझे तो कुछ वैसी ही परिस्थिति 4-5 जून की रात को रामलीला के मैदान में लगी। अब बिना किसी भूमिका के उस घटना पर आता हूं।
गांधी जी अपने परिवार के साथ भारत से नेटाल के लिए स्टीमर से चल चुके थे। उधर डरबन में एक अलग किस्म की लड़ाई चल रही थी। उसका केन्द्र बिन्दू गांधी जी थे। उनपर दो आरोप थे ..
१. उन्होंने भारत में नेटाल-वासी गोरों की अनुचित निन्दा की थी, (काले धन और भ्रष्टाचार के लिए सरकार की निन्दा – अनुचित?!)
२. वे नेटाल को भारतीयों से भर देना चाहते थे। (रामलीला में लोगों को बुलाना, लोगों के मन में भ्रष्टाचार और कालेधन के खिलाफ़ लड़ाई का जज़्बा भरना)
गांधी जी निर्दोष थे। उन्होंने भारत में कोई ऐसी नई बात नहीं कही थी जो उन्होंने इसके पहले नेटाल में न कही हो। और जो कुछ भी उन्होंने कहा था पक्के सबूत के बल पर कहा था। (भ्रष्टाचार पर, कालेधन पर, स्विस बैंक पर सारे तथ्य और आंकड़े लोगों के सामने है, उस दिन जो रामलीला मैदान में बात कही गई थी, वह कोई नई नहीं थी।)
गांधी जी से जहाज पर कप्तान ने पूछा, “गोरे जैसी धमकी दे रहे हैं, उसी के अनुसार वे आपको चोट पहुंचायें, तो आप अहिंसा के अपने सिद्धान्त पर किस प्रकार अमल करेंगे?”
गांधी जी ने जवाब दिया, “मुझे आशा है कि उन्हें माफ़ कर देने की और उन पर मुकदमा न चलाने की हिम्मत और बुद्धि ईश्वर मुझे देगा।”
कई दिन तक बन्दरगाह पर जहाज लगा रहा, उन्हें जहाज से उतरने की इज़ाज़त नहीं मिली। धमकी दी गई कि जान खतरे में है। आखिर 13 जनवरी 1897 को उतरने का आदेश मिला। गोरे उत्तेजित थे। गांधी जी के प्राण संकट में थे। पोर्ट सुपरिण्टेण्डेण्ट टेटम के साथ गांधी जी को चलने को कहा गया। अभी आधा घंटा भी नहीं हुआ था कि लाटन ने कप्तान से कहा कि स्टीमर एजेण्ट के वकील के नाते वे गांधी जी को अपने साथ ले जाएंगे।
लाटन ने गांधी जी को कहा कि बा और बच्चे गाड़ी में रुस्तम सेठ के घर जायें और वे दोनों पैदल चलें। वे नहीं चाहते थे कि अंधेरा हो जाने पर शहर में दाखिल हुआ जाए। चोरी-छुपे जाना कोई अच्छा काम नहीं है।
गांधी जी इस सलाह पर सहमत हुए। बा और बच्चे गाड़ी में बैठकर रुस्तमजी के घर सही सलामत पहुंच गए। गांधी जी लाटन के साथ मील भर की दूरी पर स्थित रुस्तम जी के घर के लिए पैदल चले। कुछ ही दूर चलने पर कुछ लड़कों ने उन्हें पहचान लिया। वे चिल्लाने लगे, “गांधी, गांधी”। काफ़ी लोग इकट्ठा हो गए। चिल्लाने का शोर बढ़ने लगा। भीड़ को बढ़ते देख लाटन ने रिक्शा मंगवाया। न चाहते हुए भी गांधी जी को उसमें बैठना पड़ा।
पर लड़कों ने रिक्शेवाले को धमकाया और वह उन्हें छोड़कर भाग खड़ा हुआ। वे आगे बढ़े। भीड़ बढ़ती ही गई। भीड़ ने लाटन को अलग कर दिया। फिर गांधी जी पर पत्थरों और अंडों की वर्षा शुरु हो गई। किसी ने उनकी पगड़ी उछाल कर फेंक दिया। फिर लातों से उनकी पिटाई की गई। किसी ने उनका कुर्ता खींचा तो कोई उन्हें पीटने लगा, धक्के देने लगा। गांधी जी को गश आ गया। चक्कर खाकर गिरते वक्त उन्होंने सामने के घर की रेलिंग को थामा। फिर भी उनकी पीटाई-कुटाई चलती रही। तमाचे भी पड़ने लगे।
इतने में एक पुलिस अधीक्षक की पत्नी, श्रीमती एलेक्जेंडर, जो गांधी जी को पहचानती थी, वहां से गुज़र रही थी। वह बहादुर महिला गांधीजी एवं भीड़ के बीच दीवार की तरह खड़ी हो गई। धूप के न रहते भी उसने अपनी छतरी खोल ली, जिससे पत्थरों और अंडों की बौछाड़ से गांधी जी बच सकें। इससे भीड़ कुछ नरम हुई। अब स्थिति यह थी की यदि बापू पर प्रहार करने हों तो मिसेज एलेक्ज़ेंडर को बचाकर ही किये जा सकते थे। थाने में खबर पहुंची। पुलिस सुपरिण्टेण्डेण्ट एलेक्ज़ेण्डर ने एक टुकड़ी गांधी जी को घेर कर बचा लेने के लिए भेजी। वह समय पर पहुंची। रुस्तमजी के घर तक जाने के रास्ते के बीच में थाना पड़ता था। एलेक्ज़ेण्डर ने थाने में ही आश्रय लेने की सलाह दी। गांधी जी ने इन्कार कर दिया। उन्होंने कहा, “जब लोगों को अपनी भूल मालूम हो जायेगी, तो वे शान्त होकर चले जाएंगे। मुझे उनकी न्याय बुद्धि पर विश्वास है।”
पुलिस दस्ते ने उन्हें सही सलामत रुस्तमजी के घर तक छोड़ दिया। गांधी जी की पीठ पर मार पड़ी थी। एक जगह से ख़ून निकल आया था। चिकित्सक को बुलाकर गांधीजी की चोटों का इलाज करवाया गया।
भीड़ ने यहां भी उनका पीछा न छोड़ा। रात घिर आई थी। वे गांधीजी की मांग कर रहे थे। “गांधी को हमें सौंप दो। हम उसे जिन्दा जला देंगे”। भीड़ चीख रही थी। “इस सेव के पेड़ से उसे फांसी पर लटका देंगे”।
परिस्थिति का ख्याल करके एलेक्ज़ेंडर वहां पहुंच गये थे। भीड़ को वे धमकी से नहीं, बल्कि उनका मन बहला कर वश में कर रहे थे। पर स्थिति नियंत्रित नहीं हो रही थी। भीड़ धमकी दे रही थी कि यदि गांधी जी को उन्हें नहीं दे दिया गया तो घर में आग लगा देंगे। एलेक्ज़ेंडर ने गांधी जी को संदेश भिजवाया, “यदि आप अपने मित्र का मकान, अपना परिवार और माल-असबाब बचाना चाहते हों, तो आपको इस घर से छिपे तौर पर निकल जाना चाहिए।”
आगे बढ़ने के पहले इस विषय पर गांधी जी ने अपनी आत्मकथा में जो लिखा है वह जानना ज़रूरी है,
“कौन कह सकता है कि मैं अपने प्राणों के संकट से डरा या मित्र के जान-माल की जोखिम से अथवा अपने परिवार जी प्राणहानि से या तीनों से? कौन निश्चय-पूर्वक कह सकता है कि संकट के प्रत्यक्ष सामने आने पर छिपकर भाग निकलना उचित था? पर घटित घटनाओं के बारे में इस तरह की चर्चा ही व्यर्थ है। उनका उपयोग यही है कि जो हो चुका है, उसे समझ लें और उससे जितना सीखने को मिले, सीख लें। अमुक प्रसंग में अमुक मनुष्य क्या करेगा, यह निश्चय-पूर्वक कहा ही नहीं जा सकता। इसी तरह हम यह भी देख सकते हैं कि मनुष्य के बाहरी आचरण से उसके गुणों की जो परीक्षा की जाती है, वह अधूरी और अनुमान-मात्र होती है।” (आज के सन्दर्भ में भी इसे देखें)
गांधीजी के पास चोरी-छुपे भागने के अलावा कोई चारा नहीं था। भागने के प्रयास में वे अपनी चोटों को भूल गए थे। उन्होंने भारतीय सिपाही की वर्दी पहनी। सिर पर लाठी आदि की चोट से बचने के लिए पीतल की एक तश्तरी रखी और ऊपर से मद्रासी तर्ज़ का बड़ा साफ़ा बांधा। साथ में खुफ़िया पुलिस के दो जवान थे। उनमे से एक ने भारतीय व्यापारी की पोशाक पहनी और अपना चेहरा भारतीय की तरह रंग लिया। दूसरे ने वाहन चालक का वेश धरा। वे सभी बगल की गली से होकर पड़ोस की एक दुकान में पहुंचे। गोदाम में लगी हुई बोरों की थप्पियों को लांघते हुए दुकान के दरवाज़े से भीड़ में घुसकर आगे निकल गये। गली के नुक्कड़ पर गाड़ी खड़ी थी उसमें बैठाकर उन्हें उसी थाने में ले जाया गया जहां आश्रय लेने की सलाह एलेक्ज़ेण्डर ने दी थी।
इधर उस घर के सामने पुलिस अधीक्षक भीड़ से गाना गवा रहे थे,
“चलो, हम गांधी को फांसी पर लटका दें,
इमली के उस पेड़ पेड़ पर फांसी लटका दें।”
जब एलेक्ज़ेंडर को यह खबर मिली कि गांधी जी सही-सलामत थाने पहुंच गए हैं तो उसने भीड़ से कहा, “आपका शिकार तो इस दुकान में से सही सलामत निकल भागा है।”
भीड़ को विश्वास न हुआ। उनके प्रतिनिधि ने अन्दर जाकर कर तलाशी ली। उन्हें निराशा हुई। धीरे-धीरे भीड़ बिखर गई।
जब आक्रमणकारियों पर मुकदमा चलाने की बात चली तो गांधी जी ने कहा, “मुझे किसी पर मुकदमा नहीं चलाना है। उन्हें सज़ा दिलाने से मेरा क्या लाभ होगा। मैं तो उन्हें दोषी ही नहीं मानता हूं। उन्हें तो भड़काया गया था। दोष तो बड़ों का है। वे सही रास्ता दिखा सकते थे। जब वस्तु-स्थिति प्रकट होगी और लोगों को पता चलेगा, तो वे खुद पछताएंगे।”
उस दिन के बारे में गांधी जी लिखते हैं, “जब भी मैं उस दिन को याद करता हूं तो मुझे लगता है कि ईश्वर मुझे सत्याग्रह का अभ्यास करवा रहा था!”
संदर्भ बदल जाते हैं, अर्थ बदल जाता है। समस्या से लोगों को भटका दिया जाता है। लोगों का सुर बदल जाता है। मीडिया का सुर बदल जाता है।
किसी बड़े काम के लिए एक तंत्र की ज़रूरत पड़ती है। गांधी जी के भी आश्रम थे। फीनिक्स आश्रम, टालस्टाय फ़ार्म, साबरमती आश्रम और वर्धा आश्रम। आज के बाबा का भी आश्रम है। क्या आश्रम में रहने वाला कालाधन और भ्रष्टाचार की बात नहीं कर सकता?
2 comments:
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