मोहन दस करमचंद गाँधी जो भारत के तथाकथित राष्ट्रपिता कहलाये जाते है, इनकी कोई भी आलोचना इस देश में राष्ट्र द्रोह करार दे दी जाती है. कोई भी व्यक्ति भगवन नहीं हो सकता. हर किसी से गलतियाँ हो सकती है. हर व्यक्ति अपने जीवन में कुछ अच्छे काम करता है कुछ गलत. समाज को उसके अच्छे एंव बुरे दोनों कार्यो से प्रेरणा लेनी चाहिए. आज में गाँधी जी के ऐसे ही कुछ कार्यो की और पाठको का ध्यान आकर्षित करना चाहता हूँ जब गाँधी जी ने जन आकांक्षा एवं लोकतंत्र के खिलाफ जाकर अपनी ”सोच” एक तानाशाह के रूप में इस देश पर थोपी थी.
पहला प्रकरण भगत सिंह से सम्बंधित है. ये हम सभी जानते है की अंग्रेजो ने भगत सिंह एवं उनके साथियों को कुछ झूठे मुकदमो में फंसा कर फांसी पर चढाने की पूरी तयारी कर ली थी. दरअसल अंग्रेजो को सबसे ज्यादा डर इन्ही क्रांतिकारियों से था. क्योंकि ये अंग्रेजो को उन्ही की भाषा में जवाब देते थे. इसलिए अंग्रेज क्रांतिकारियों का सफाया चाहते थे. वैसे ही जैसे आज कांग्रेसी बाबा राम देव जी का करना चाहते है.
गाँधी एवं कांग्रेस के नेतृत्व में देश में अंग्रेजो के खिलाफ व्यापक आन्दोलन हो रहे थे. जिस में देश की जनता भी बढ़ चढ़ कर हिस्सा ले रही थी. तात्कालिक वैसरॉय लोर्ड इरविन किसी भी हालत में इन जनांदोलनो को रोकना चाहते थे. परिणामस्वरूप अंग्रेजी सरकार घोषणा करती है की वे गाँधी जी की सभी मांगे मानने के लिए तैयार है, एवं गाँधी जी को बातचीत का न्योता देती है. जिसे गाँधी जी स्वीकार कर लेते है. अंग्रेजो को लगता था की गाँधी जी सभी मांगो के साथ भगत सिंह एवं अन्य क्रांतिकारियों की रिहाई की भी मांग करेंगे. इसलिए लोर्ड इरविन इसके लिए भी तैयार थे, तथा इसके लिए उन्होंने लन्दन की भी स्विकिरती ले ली थी. दूसरी और देश की जनता में भी यही आशा थी की अब भगत सिंह एवं साथी जेल से रिहा हो जाएँगे. भगत सिंह के क्रांतिकारी विचारो से देश का युवा व मजदूर वर्ग विशेष प्रभावित था. दरअसल भगत सिंह वो पहले जन नेता थे जिन्होंने लोकपिर्यता के मामले में गाँधी जी को भी पीछे छोड़ दिया था. मगर देश की जनता यह सुन कर चकित रह गयी की गाँधी जी ने भगत सिंह की फांसी का जिक्र तक इरविन के साथ हुए समझोते में नहीं किया था. जबकि गाँधी जी ने दुसरे 70000 बंदियों को छुड़ा लिया था. अंग्रेजो को तो बिन मांगी मुराद मिल गयी थी. गाँधी जी के इस फैसले से देश की जनता में तीव्र प्रतिक्रिया हुई. परिणामस्वरूप गाँधी जी जहाँ भी जाते उन्हें काले झंडे दिखाए जाने लगे. यहाँ तक की इन घटना के बाद कांग्रेस के कराची में हुए अधिवेशन तक में उन्हें काले झंडे दिखाए गए. यह पहला समय था जब गाँधी जी को इतना तीर्व जन विरोध झेलना पड़ा था. जिसका जिक्र स्वयं नेहरु ने लिखते हुए किया है की अगर भगत सिंह जिन्दा रहते तो कांग्रेस एवं गाँधी को पीछे छोड़ देते.
दूसरा प्रकरण नेता जी सुभाष चन्द्र बोस से संबंधित है. जिनका नारा था "तुम मुझे खून दो मै तुम्हे आजादी दीलाउगा". ये घटना दरसल 1938 की है. देश की जनता गाँधी एवं कांग्रेस के अति आदर्शवादी भाषणों से उब चुकी थी. जनता नए विकल्पों की और देखने लगी थी. जो उन्हें नेताजी के रूप में मिल गया था. परिणाम स्वरुप वो गाँधी जी के विरोध के बावजूद नेताजी कांग्रेस के अध्यक्ष निर्वाचित हुए. परिणाम स्वरुप गाँधी जी के ”चमचा नेताओ” ने गाँधी जी के इशारे पर नेताजी के कामो में अडंगा डालना शुरू कर दिया था. यहाँ तक की कांग्रेस कार्यसमिति का गठन भी उन्हें नहीं करने दिया गया.
अगले साल 1939 में पुन: कांग्रेस अध्यक्ष का चुनाव आया. गांधीजी ने इस बार पट्टाभि सितारैमैया को खड़ा किया तथा नारा दिया की ”पट्टाभि सितारैमैया की हार मेरी हार होगी”. इसके बावजूद पट्टाभि सितारैमैया चुनाव हार गए और नेताजी पुन: कांग्रेस के अध्यक्ष निर्वाचित हो गए. भगत सिंह प्रकरण के बाद यह दूसरा समय था जब गाँधी के ऊपर जनता ने किसी और को वरीयता दी थी. किन्तु गाँधी के चमचो ने पुन: अपना खेल खेला एवं नेताजी के कार्यो में विघन ढालना जरी रखा. जिससे दुखी होकर आखिरकार नेताजी ने कांग्रेस से इस्तीफा दे दिया. अगर वो चाहते तो स्वयं गाँधी एवं कंपनी को कांग्रेस से बहार का रास्ता दिखा सकते थे या कांग्रेस को दो फाड़ कर सकते थे. किन्तु उन्होंने ऐसा नहीं किया. इस प्रकार गाँधी जी ने एक बार पुन: लोकतंत्र को ठगा और अपनी निजी राय देश पर थोपी. क्या यही सम्मान था गाँधी जी के दिल में लोकतंत्र के लिए. क्यों एक निर्वाचित अध्यक्ष को इस तरह हटने के लिएय मजबूर किया गया?
तीसरा प्रकरण 1946 -47 का है. भारत का बटवारा एंव स्वतंत्रता निश्चित हो चुकी थी. देश के सामने यक्ष प्रशन था की प्रथम प्रधानमंत्री कोन बनेगा. 1946 में कांग्रेस अध्यक्ष पद के चुनाव होने थे. ये आम धारणा थी की कांग्रेस अध्यक्ष ही प्रथम प्रधानमंत्री बनेगा. देश की जनता सरदार पटेल जी के पक्ष में थी और गाँधी जी नेहरु के पक्ष में. इसलिए ये निश्चित था की अगर सीधे चुनाव हुए तो जन दबाव में सरदार पटेल अध्यक्ष पद का चुनाव जरुर लड़ेंगे और जीतेंगे भी. इसलिए गाँधी एवं नेहरु ने चाल चलते हुए पहली बार कांग्रेस अध्यक्ष पद के लिए कांग्रेस के प्रांतीय अध्यक्षों की रायशुमारी का प्रस्ताव रखा. उस समय 16 कांग्रेस प्रांतीय अध्यक्ष हुआ करते थे जिसमे से 13 प्रांतीय अध्यक्षों ने सरदार पटेल के नाम का प्रस्ताव दिया. परन्तु गाँधी जी के आग्रह पर सरदार पटेल जी ने ये प्रस्ताव ठुकरा दिए. इस प्रकार गाँधी जी ने पुन: लोकतंत्र का गला घोटते हुए अपनी निजी राय के रूप में नेहरु को इस देश पर थोप दिया. नेहरु ने इस देश के साथ क्या क्या कुकर्म किये ये पूरा इतिहास है.
ऐसा नहीं है की गाँधी जी को अपनी गलतियों का एहसास नहीं हुआ. जब उन्होंने नेहरु को प्रधानमंत्री के रूप में कार्य करते हुए देखा और ये जाना की नेहरु बिलकुल फ़ैल साबित हो रहा है तो वे बहुत दुखी और असंतुष्ट हुए. और इस बारे में जब उनसे उनके एक अमरीकी पत्रकार मित्र ने पूछा की ”गाँधी जी आप कुछ करते क्यों नहीं?” पत्रकार का आशय नेतृत्व परिवर्तन से था. तो गाँधी जी ने जवाब दिया की "अब न तो वो कांग्रेसी है और न ही वे लोग है.” मुझे पूरा यकीन है की ये बात कहते समय उनके मन में जरुर भगत सिंह, नेताजी सुभाष चन्द्र बोस एवं सरदार पटेल के संस्मरण ताजा हो गए होंगे. इसीलिए सरदार पटेल का इस्तीफा कई बार वह यह कह कर रुकवा देते थे की देश को सरदार पटेल की जरुरत है. अब आप खुद ही देखिये गाँधी की तानाशाही रवय्ये के कारण कांग्रेस आज एक वंश की जंजीरों में जकड़ी पडी है. और देश की जड़ो को खोखला कर रही है. आज गाँधी का दूसरा नाम लूट का पर्याय बन चूका है. आज की परिस्थितियों को देखते हुहें यही कह सकते है कि, अगर गाँधी को बचाना है, तो गाँधी से भागो.
अंत में एक प्रशन: क्या हम इतिहास से कोई सबक लेंगे?
1 comment:
नजर नजर का फर्क है भाई। कुछ लोग कचरे में भी काम की खोज लेते हैं और कुछ को हर काम की चीज भी कचरे जैसी नजर आती है।
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तांत्रिक शल्य चिकित्सा!
ये ब्लॉगिंग की ताकत है...।
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