इसे आप मनमोहन का मीडिया मैनेजमेंट कहें तो ज्यादा अच्छा है. देश के प्रधानमंत्री की वरिष्ठ पत्रकारों से मुलाक़ात महज पहले पेज की लीड स्टोरी भर नहीं है, ये देश भर के छोटे मझोले अख़बारों, जैसे तैसे चलाये जा रहे चैनलों और वैकल्पिक मीडिया के द्वारा भ्रष्ट सरकार के खिलाफ शुरू की गयी उस क्रान्ति को ख़त्म करने की एक बड़ी कोशिश है, जिस क्रांति ने कांग्रेस के खिलाफ आपातकाल से भी बड़ा जनमत पैदा करने का काम कर दिखाया है. सिंहासन से खदेड़े जाने से भयभीत सरकार सरकार के पक्ष में खबरों के प्रबंधन में लगी है. शर्मनाक है ये कि, जिस एक वक्त अखबारों को सीधे सीधे सत्ता के खिलाफ नाफ़रमानी का प्रस्ताव पारित करना चाहिए था. ठीक उस एक वक्त चाय के प्याले में देश की जनता के आक्रोश और उनकी उतेजना को डुबो देने का काम किया गया.
महंगाई कैसे हो सकती हैं? क्या इस देश में आम आदमी को भोजन का अधिकार मिलेगा? मगर ये सवाल नहीं पूछे गए. पीएम जो चाहते थे वो आज की सुर्खियाँ हैं, जनता का दर्द और पीएम जिन जवाबों से बचना चाहते थे, फिलहाल पहले पन्ने से नदारद है. इससे बड़ा दुर्भाग्यपूर्ण क्या होगा कि मिस्टर प्राइम मिनिस्टर ने मीडिया के मुंह पर तमाचा जड़ते हुए साफ़-साफ़ कह दिया कि मीडिया का एक वर्ग सरकार को निष्क्रिय और कमजोर बताने का दुष्प्रचार कर रहा है और संपादकों ने मुस्कुराकर इस बात को स्वीकार कर लिया. इस पूरी मुलाक़ात में जो सबसे बड़ा सवाल पूछा गया वो ये था कि राहुल गाँधी को आप अगले प्रधानमंत्री के तौर पर देखते हैं? मानो कि ये सवाल सम्पादक नहीं राहुल गांधी के पीआर एजेंट कर रहे हों.
प्रधानमन्त्री कार्यालय ही नहीं आम आदमी भी अब जानता है कि, तमाम बड़े संस्थानों के सम्पादक अब पत्रकार कम मैनेजर ज्यादा है, इलेक्ट्रानिक मीडिया के साथ जुड़ी चकाचौंध के मीडिया बाजार में पहुँचने के बाद से ही तमाम बड़े पत्रकार मैनेजर हो गए, वहीँ कई मैनेजर पत्रकार हो गए, कोट-पैंट-टाई में देश की गरीबी, भ्रष्टाचार और सरकार की नाकामियों को देखने वाले संपादकों-पत्रकारों की इस जमात के अपने सिद्धांत अपने मुगालते हैं, ये वही लोग हैं जो मीडिया को भारत भाग्य विधाता समझते हैं और जनता के सामने खुद को प्रस्तुत भी उसी तरह से करते हैं. सरकार भी जानती है कि अमुक पत्रकार या अमुक सम्पादक या अमुक अखबार जनता की माइंड वाशिंग का काम कर सकता है सो वो भी वक्त और मौके के हिसाब से उनका इस्तेमाल करती है (राडिया काण्ड के बाद ये बात छुपी नहीं है कि इन कारपोरेट पत्रकारों का देश की राजनीति में किस हद तक हस्तक्षेप है ) स्पेक्ट्रम घोटालों के पर्दाफाश के बाद बड़े मीडिया हाउसेज से प्रधानमन्त्री की दो दौर में हुई मुलाक़ात और उसके बाद ख़बरों की दुनिया में आया रंग-परिवर्तन भी साफ़ संकेत देता है कि पीएम आफिस इस्तेमाल की सारी तकनीक जानता है.
प्रधानमंत्री से होने वाली इन मुलाकातों से आम जनता का क्या भला होगा ये अलग विषय है, लेकिन एक बात बिलकुल शीशे की तरह साफ़ है कि ऐसी मुलाकातों ने देश के आम मेहनतकश पत्रकारों और ख़बरों के मध्यम से एक्टिविज्म कर रहे सीधी रीढ़ के मीडिया संस्थानों का भारी नुकसान किया है. बहुत मुमकिन है कि मुलाकातियों में से कुछ, कल को राज्यसभा में पहुँच जाए, कुछ को पत्रकारिता का महानायक घोषित कर दिया जाए और कुछ को सरकार पद्मश्री दे दे, मगर इसकी कीमत गाँवों से लेकर महानगरों तक में फैले उन पत्रकारों को अदा करनी पड़ेगी, जो एक एक ख़बरों के लिए जूझता है जिनकी मुट्ठियाँ भी भूख, अपराध, भ्रष्टाचार और महंगाई के खिलाफ आम जनता की तरह तन जाती है. इन पत्रकारों को अब ये बात समझ में आने लगी है कि खबरें लिखने का मतलब जनता को जागृत करना न होकर अपने संस्थान और सम्पादक को सत्ता का ख़ास बनाये रखना रखना है. इसके लिए वो भी ख़बरों को सरकार के हितों के हिसाब से प्रस्तुत करता है, जनता को ये बात अब समझ में आ जानी चाहिए. मीडिया से क्रान्ति की उम्मीद रखने वालों के लिए ये जरुरी है कि मीडिया के चेहरों को भी पहचान ले, नहीं तो कल को फिर से वही होगा कि पत्रकारिता की देवी माने जाने वाली बरखा दत्त सरीखा कोई और मुंह पर तमाचा जड़ कर चल देगा.
2 comments:
Bik chuka hai es desh ka media ... ye to bhala ho INTERNET ka ... jiski bajah se hum kuch kah paate hain aur jaan pate hain.
BEsharmi ki bhi had hoti hai, Apni sari kabliyat Mitti main mila di Man Mohan ji Ne matra ek mahila ke liye
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